Book Title: Aupapatikopanga Sutram
Author(s): Jinendrasuri,
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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औपपा
तिकम्
॥२८॥
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नान्तरे तु दृश्यते 'आणामियचावरुइलकिणहभराइसंठियसंगयआययसुजायभमुए' आनामितचापबदचिरे कृष्णाभ्रराजीवच्च संस्थितेतत्संस्थानवत्यो सङ्गते--उचिते आयते--दीर्धे सुजाते--सनिष्पन्ने भ्रवौ यस्य स तथा (५५), 'अवदालियपुंडरीयणयणे' अवदालित--रविकरैविका
- वीरवर्णन सितं--यत्पुण्डरीकं--सितपद्म तद्वन्नयने यस्य स तथा, अत एव 'कोआसिअधवलपत्तलच्छे' कोकासियत्ति--पद्मवद्विकसिते धवले च क्वचिद्देशे पत्रले च--पक्ष्मवत्यौ अक्षिणी-लोचने यस्य स तथा। गरुलायतउज्जुतुंगणासे' गरुडस्येवायता--दीर्घा ऋज्वी--अबका तुङ्गा--उन्नता नासा--नासिका यस्य स तथा। 'उचिअसिलप्पवालबिंधफलसण्णिभाहरोहे' उअचिअत्ति--परिकर्मितं यच्छिलारूपं प्रवालं विद्रुममित्यर्थो, बिम्बफलं--गोल्हाफलंतयोः सन्निभः--सदृशो रक्ततयाउन्नतमध्यतया च अधरोष्ठ:--अधस्तनदन्तच्छदो यस्य स तथा (५६), 'पंडरससिसअलविमलणिम्मलसंखगोक्खीरफेणकंददगरयमुणालियाधवलदंतसेढी' पाण्डुरम्--अकलङ्क यच्छशिशकलं--चन्द्रखण्डं विमलानां मध्ये निर्मलश्च यः शङ्खः गोक्षीरफेने च प्रतीते कुन्द--पुष्पविशेषः उदकरजश्च--तोयकणा मृणालिका च--विशिनी तद्वद्धबला दन्तश्रेणियस्य स तथा (६०)। 'अखण्डदन्ते' सकलरदनः, 'अपफुडियदंते' अजर्जरदन्तः, 'अविरलदंते' धनरदनः, 'सुणिडदंते'त्ति व्यक्तं, 'सुजायदंते' सम्यगनिष्पन्नदन्तः 'एगदंतसेढीविय अणेगदंते' एकस्य दन्तस्य श्रेणि:--पङ्क्तिर्यस्य स तथा, स इव परस्परानुपलक्ष्यमाणदन्तविभागत्वात् अनेके दन्ता यस्य स तथा (६६), 'हुयवहणिडंतधोयतत्ततवणिजरत्ततलतालुजीहे' हुतबहेन-अग्निना निर्मातं--दग्धमलं धौत--जलप्रक्षालितं तप्त--सतापं यत्तपनीयं-सुवर्ण तद्वद्रक्ततलं-लोहि-* तरूपं तालु च--काकुदं जिह्वा च-रसना यस्य स तथा (६७) ३।
अवट्ठिय-सुविभत्त-चित्तमंसू मंसल-संठिय-पसन्थ-सद्दूल-विउलहणूए चउरंगुल-सुप्पमाण-कंबुवर-सरिसग्गीवे (७०), वरमहिस-वराह-सीह-सद्दूल-उसभ-नाग-वर-पडिपुण्ण-विउलक्खंधे (७१), जुगसन्निभ-पीणरइय-पीवर-पउ?--संठियसुसिलिट्ठ-विसिट्ठ--घण--थिर-सुबद्ध--संधि (संठियोवचिय-घणथिर-सुघड-सुणिगूढपव्वसंधी), पुरवर-फलिह-वटियभुए भुअईसर--विउल--भोग-आदाण--प(फ)लिह--उच्छूढ-दीहवाहू (७३), रत्ततलोवइय-मउअ-मंसल-सुजाय-लक्खण-पसत्य-अच्छिद्द
XXXXXXXXXXXXXXXSAKSHRE
X॥२८॥

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