Book Title: Aupapatikopanga Sutram
Author(s): Jinendrasuri,
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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औपपा
कोणिक.
तिकम्
॥३८॥
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अनवाप्तमवाप्तुमिच्छन्ति । 'पत्थंति'त्ति प्रार्थयन्ति-तथाभृतसहायजनेभ्यः सकाशाद्याचन्ते । 'अभिलसंतिपत्ति अभिलपन्ति-आभिमुख्येन कमनीयमिति मन्यन्ते । 'णामगोत्तस्सवित्ति नाम च-अभिधानं यथा महावीर इति, गोत्रं च-वंशो यथा काश्यपगोत्र इति, नामगोत्रमिति द्वन्द्वैकत्वमतस्तस्य, अथवा नामाभिधानं गोत्रं च यथार्थ, ततः कर्मधारय इति । 'सवणयाए'त्ति श्रवणानां भावः श्रवणता तया, स्वार्थिको वा ताप्रत्ययः प्राकृतशैलीप्रभव इति ॥ सूत्र ११ ॥
तए णं से कूणिए राया भंभसार पुत्ते तस्स पवित्तिवाउअस्स अंतिए एयमह सोचा णिसम्म हहतुट्ठ जाव हिअए (धाराहय-नीव-सुरहि-कुसुमचंचुमालइय-उच्छिय-रोमकुवे) विअसिअ-वरकमल-णयणवयणे पअलिअ-वरकडग-तुडिय-केयूरमउड-कंडल-हारविरायंत-रहयवच्छे पालंव-पलंबमाण-घोलंत-भूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे सीहासणाउ अन्भुढेइ २त्ता पायपीढाउ पच्चोळहइ २त्ता (वेरुलिय-वरिह-रिट्ठ-अंजण-निउणोविय-मिसिमिसिंत-मणिरयण-मंडियाओ) पाउआओ ओमुअइ २त्ता अवहटु पंच रायककुहाई, तंजहा-खग्गं १ छत्तं २ उप्फेसं ३ वाहणाओ ४ चालवीअणं ५ एकसाडियं उत्तरासंगं करेइ २ त्ता आयंते चोक्ने परमसुइभूए अंजलिमउलिअग्गहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छति, सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छित्ता वामं जाणं अंचेइ, वाम जाण अंचेता दाहिणं जाणु धरणितलंसि साहटु, तिक्खुत्तो मुडाणं धरणितलंसि निवेसेइ २ त्ता ईसिं पच्चुण्णमति पच्चुणमित्ता, कडगतुडिय-थंभिआओ भुआओ पडिसाहरति २ करयल जाव कटु एवं वयासी
सोचा णिसम्माति श्रुत्वा-श्रोत्रेणाकर्ण्य निशम्य-हृदयेनावधार्य । 'धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइअउच्छियरोमकूवे' धाराभिःजलधरवारिधाराभिहतं यन्नीपस्य-कदम्बस्य सुरभिकुसुमं तत्तथा, तदिव चंचुमालइयत्ति-पुलकितोऽत एव उच्छ्रितरोमकूपश्च यः स तथा, इदं च विशेषणं क्वचिदेव दृश्यते । 'विअसियवरकमलणयणवयणे' विकसितानि-भगवदागमनवार्ताश्रवणजनितानन्दातिशयादुत्फुल्लानि वरकमलवनयनवदनानि यस्य स तथा । 'पचलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुंडलहारविसयंतरइयवच्छे' प्रचलितानि-भगवदागमनश्रवणंजनितसम्भ्रमातिरेकात्

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