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श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत
सब रूप सुन्दर बार कीने । मोह महातम घेर में ॥ ३ ॥ षाम कुगुरू प्रदान कीनो तप्त वात चउरासीयां । मानसी तन रोग पीरा घरम गरमी फासीयां । अधोभूमी नरक ताती बातीयां बहु दुख नरे । अब नेम समरण कीजिये तन तपत टारे दुख हरे ॥ ४ ॥ सावन घटा घनघोर गरजी नेम बानी रस जरी । पबंद निंदक संघ के तिन जान सिर विजरी परी । सत्ता सुनूमी नव्य जन की सांसे सब वरी । अब आस पुन्य अंकुर की मनमोद सहियां फिर खरी ॥ ५ ॥ जादो जए फुन पुन्य पूरे धरम वारी लह लही । सहस अष्टादसदले सीलांग संज्ञा जूम रही। सरधान जल सुध सींचता अतिज्ञान तरुवर फुल रहे । लागेंगे अजरा अमर फल मधु नेम आणा सिर वहे || ६ || आसु पुकारे कुगुरु पितराहमरी गत तुम कीजिये । व्य ब्राह्मण खीर जिन वच चाखीये रस पीजिये । कुगुरु खाली हाथ बैठे पाये नर जव खोय के । पूजो दसहरा धरम दस विध ज्ञान दरसन जोय के ॥ ७ ॥ कार्तिक दीवाली ज्ञान दीपक नरम तिमर उमाश्या । अब ज्ञान पंचम निकट आई करण त्रिक सुद्ध पाश्या ।
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