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११० श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत-- नगरे । मुजको राह बताजारे ॥ सामरे ॥ ४ ॥ में दासी प्रचु तुमरे चरनकी। आतम ध्यान लगाजारे ॥ सामरे ॥ ५ ॥
--yaaseem ॥आत्माने शिखामण, पद आठमुं॥
॥ राग विहाग ।।। रे मन मूरख जनम गमायो । निज गुन त्याग विषयन रस बुधो । नेम शरण नहीं आयो ॥ रे मन ॥ १ ॥ यह संसार सुहा सावरजो। संबल देख बुनायो । चाखन लाग्यो रुश्सी उम गए। हाथ कलुय न आयो ॥ रे मन ॥२॥ यह संसार सुपनसीमाया। मुरख देख लोजायो। जम गई निंद खुली जब अखीयां । आगे कठ्य न पायो॥ रे मन ॥३॥ पर गुन तजकर निज गुन राचो । पुन्य उदय तुम आयो। एक अनादि चिन्मय मूरति । सुमति संग सुहायो । रे मन ॥ ४ ॥ परगुन बकरीके संग चरतो । हुँ नाम धरायो। जिनवर सिंघकी नाद सुन्यो जब। आतम सिंघ सुहायो ॥ रे मन ॥५॥