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श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत
अथ चतुर्थ एकत्व नावना।
॥ राग वढंस ॥ तुम क्यों नूल परे ममतामें, या जगमें कहो कोन हे तेरा ॥ तुम ॥ आंचली ॥ आया एक ही एक ही जावे, साथी नहीं जग सुपन वसेरो । एक ही सुख दुःख जोगवे प्राणी, संचित जो जन्मांतर केरो ॥ तुम ॥ १॥ धन संच्यो करी पाप नयंकर, नोगते स्वजन आनंद जरेरो । आप मरी गयो नरकही थाने, सहे कलेश अनंत खरेरो ॥ तुम ॥२॥ जिस बनितासे मद नहि मातो, दिये आचरण हि वसन जलेरो । सो तनु सजी पर पुरुषके संगे, लोग करे मन हर्ष घनेरो ॥ तुम ॥ ३॥ जीवित रूप विद्युत सम चंचल, मान अनी उद बिंदु लगेरो। श्नमें क्यों मुरुकायो चेतन, सत चिद आनंद रूप अकेरो ॥ तम ॥ ४ ॥ एक ही आतमराम सुहंकर, सर्व जयंकर दूर टरेरो । सम्यग दरसन झान स्वरूपी, जेष संयोग हि बाह्य धरेरो ॥ तुम ॥ ५॥
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