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९८ श्रीमद्विजयानंदसूरि कृत-- नारे ॥ तनु" ॥ आंचली ॥ रस लोही पल मेद हामसे, मजा रेत गुहाना रे । आंत मूत पित्त सिंन ही कसमल, अति ही उर्गंध जराना रे ॥ तनु० ॥ १॥ नवहि ज श्रोत करे मलगंधि, रस कर्दम असुहाना रे । तनुमें शुचि संकल्प हि करना, एही ज नाम अज्ञाना रे ॥ तनु ॥२॥ नव वरननी मुख चंड ज्यू, निरखी मनमें अति हरषाना रे । रुधिर पूय मल मूत्र पेटमें, नस नस मेल नराना रे ॥ तनु ॥ ३ ॥ रुधिर मंसकी कुच ग्रंथी है, मुखसे लाल बहाना रे । गूथ मूत्रके द्वार घनीले, तिनसे लोग कराना रे ॥ तनु ॥४॥ अशुचितर खान देह शुचि नाही, जो सत स्नान कराना रे । आतम आनंद शुचितर सोहे, देह ममता तजराना रे । तनु ॥५॥
अथ सातमी आश्रव नावना ।
॥राग ठुमरी भेरवी ॥ आश्रव अतिकुःख दाना रे चेतन, आश्रवण ॥ आंचली ॥ मन वच काया के व्यापारे, योग यही मुख माना रे । कर्म शुन्नाशुन जीवकों