Book Title: Aspect of Jainology Part 3 Pandita Dalsukh Malvaniya
Author(s): M A Dhaky, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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( १२ ) देश-विदेश से अनेक विद्वान्-छात्र आते और अपनी जिज्ञासा शान्त करते। इनके विद्वत्ता का लाभ न केवल देश के विद्वान् एवं छात्र लेते बल्कि जापान, बर्मा आदि के विद्वान् भी आते और इनसे विभिन्न विषयों पर चर्चा करते । जहाँ दलसुख भाई एक ओर इतने उच्चकोटि के विद्वान् थे दूसरी ओर इनको ज्ञान प्राप्त करने की सदैव लालसा बनी रहती, एक छोटे से बालक से भी ज्ञान लेने में इन्हें कोई संकोच न होता।
__ मुनि श्री पुण्य विजय जी की प्रेरणा और राष्ट्ररत्न डा० राजेन्द्र प्रसाद के प्रयास से दिल्ली में प्राकृत सोसाइटी की स्थापना हुई । दलसुख भाई इसके मंत्री नियुक्त हुये। १९५२ में इस सोसाइटी द्वारा योग्यतम विद्वानों के संपादकत्व में अनेक दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन हआ। १९५७ में मुनि श्री पुण्यविजय जी की प्रेरणा से अहमदाबाद में श्री कस्तूर भाई लालभाई द्वारा लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर की स्थापना की गयी। कस्तूर भाई प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी के सदस्यों में से थे और उसी समय से दलसुख भाई की योग्यता से परिचित थे । अतः उन्होंने दलसुख भाई को अहमदाबाद आने का निमन्त्रण दिया। जिसे स्वीकार कर दलसुख भाई अहमदाबाद गये और वहाँ नवीन संस्थान के निदेशक पद को सुशोभित किया और १९७६ ई० तक सेवा निवृत होने के समय तक इस पद पर बने रहे।
इनका वैवाहिक जीवन सादा और सुखी था। मथुरा बेन और दलसुखभाई शांतस्वभाव. सरल. एकान्तप्रिय और मदभाषी थे। आपस में इतना अच्छा सामञ्जस्य था कि कळ न कछ गवेषणा में लगे रहने के कारण ज्यादा बात न करने पर भी वे नाराज नहीं होती। दुर्भाग्यवश इनको डायबिटीज़ (मधुमेह) की बिमारी लग गई और जनवरी सन् १९६५ में इनका आकस्मिक देहान्त हो गया। श्री दलसुखभाई के सुखी जीवन के ऊपर यह एक प्रकार का वज्रपात था। गौरवशाली, शान्त और स्वस्थ प्रकृति दलसुखभाई ने इस आपत्ति को समभाव पूर्वक सहन किया। परन्तु यह छिपा घाव किसी-किसी प्रसंग में वाणी का रूप ग्रहण कर लेता था। मथुरा बहन के देहावसान के एकाध वर्ष के बाद सन्मतिपीठ आगरा से प्रकाशित दस अपने ग्रन्थ 'आगम युग का जैन दर्शन' को अपनी पत्नी को समर्पित करते हुए किसी करुण रस के कवि की भाँति लिखा-प्रिय पत्नी मथुरा गौरी को, जिन्होंने लिया कुछ नहीं, दिया ही दिया है।
दलसुखभाई के एकमात्र सन्तान भाई रमेश जी हैं। रमेश भाई के पुत्र-पुत्री के बीच ही आप खेलते हैं।
संस्थान के निदेशक के रूप में दलसुख भाई ने न केवल जैन विद्या की अप्रतिम सेवा की है बल्कि संस्थान को उन्नति के ऐसे शिखर पर बैठा दिया कि उसका नाम विश्व भर में फैल गया। यहाँ देश-विदेश के अनेक विद्यार्थी भारतीय दर्शन विशेषकर जैन दर्शन पर उच्चाध्ययन हेतु आने लगे । इस संस्थान का जो भी विकास हुआ है उसका श्रेय केवल दलसुख भाई को ही है।
१९७६ में सेवा निवृत्ति के बाद भी संस्थान के संचालकों ने दलसुख भाई की सेवाओं का उपयोग करना जारी रखा सेवा निवृत्ति के बाद भी संस्थान के संचालकों के अनुरोध पर
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