Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 15
________________ 'अन्तिम क्षण तक जागतिक ऐश्वर्य में चिदविलास करते हुए राजर्षि भरतेश्वर, अन्तर्महर्त मात्र में, बिना तपःक्लेश के ही केवली हो गये : अरिहंत । जीवन्मुक्त । किन्तु मरीचि का यात्रा-पथ बहुत कुटिल था। भीतर निरन्तर परमहंस रह कर, उसे स्वर्गों, नरकों, पाशव तिर्यंचों तक के भीतर से आत्मानुभव की यात्रा करनी थी। नारकी और पशु की यातना और अन्धता तक से वह गुजरा। क्योंकि उसे पाशव-शक्ति प्रधान कलिकाल का तीर्थकर होना था। पशुपतिनाव होकर, मानवत्व को पशुत्व से उबार कर, देवत्व तक पहुंचानी था। · · · उस पार अशोकवन के क्रीडा-पर्वत पर, उसे सहस्रों देवांगनाओं के बीच नग्न विचरते देख रहा हूँ। : कैसा निजत्व अनुभव कर रहा हूँ। मेरे अपनत्व की प्रतिमा। फिर भी कितनी अलभ्य है मुझे ! चाहूँ तो अगले ही क्षण वहाँ हो सकता हूँ, अपनी इन्द्राणियों की बीच। वही मैं ! • • ‘पर अशक्य, बीच में देश और काल के दुलंध्य समुद्र पड़े हुए हैं। क्योंकि अभी इस क्षण में मरीचि भी हूँ, केवल अच्युत स्वर्ग का इन्द्र ही नहीं। ... फिर ब्रह्म स्वर्ग, ईशान स्वर्ग, सौधर्म स्वर्ग के मकरन्द-सरोवरों में स्नानकेलियां : तन्द्रालस कल्प-लताओं की छावों में आत्म-विस्मत ऐन्द्रिक सुखों की मूर्छा । फिर जाने कब कोई गहरा आघात : जागृति : स्वयंबोध : माहेन्द्र स्वर्ग से च्युत होकर, पृथ्वी पर जगत्-प्रसिद्ध भारद्वाज : त्रिदण्ड से सुशोभित तेजोमान ब्रह्मर्षि । किन्तु अपूर्ण ज्ञान के अभिमान से फिर भटकन ।' : एकेन्द्रिय स्थावर से स निकाय के जीव-जन्तुओं की असंख्यात योनियों तक में भ्रमण ।. . . ___.. देख रहा हूँ, जान रहा हूँ यह सब : नानाविध सुख-दुखों की अन्तहीन संवेदन-परम्परा । - मूर्छा और जागृति की इस शृंखला की कड़ियों को जोड़ नहीं पाता हूँ। मंडलाकार चक्रायित चल-चित्रों की इस जीवन-लीला का एक ही नायक, नाना देश-काल, नाना रूप, भाव, वेश में। प्राण का एक निर्बन्ध प्रवाह ! - - ‘मगध देश की राजगृही नगरी के राजा विश्वभूति का पुत्र विश्वनंदी पिता अचानक प्रव्रज्या ले निष्क्रमण कर गये। भाविक, भोला, सौन्दर्यानुरागी युवराज विश्वनन्दी, राज्य की ओर से उदासीन ! • • • अपने स्वप्न को पुष्पकरंडक उद्यान में रच कर, उसी में अपनी युवरानियों के साथ क्रीड़ालीन रहता। चाचा विशाखभूति राज्यासीन थे : उनके मूर्ख पुत्र विशाखनन्दी को विश्वनन्दी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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