Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 14
________________ 'देख रहा हूँ, तीर्थकर वृषभनाथ का अनन्त आलोक-वैभव से जगमगाता समवशरण ! गन्धकुटी के शीर्ष पर कमलासन पर अधर में आसीन प्रभु के चरणों में नम्रीभूत भरतेश्वर ने जिज्ञासा की : 'भगवन्, आपकी अभिताभ ज्योति से लोकालोक प्रकाशित हैं ! क्या फिर भी कभी पृथ्वी पर ऐसा युगन्धर ज्ञान-सूर्य उदय होगा? क्या ऐसा कोई भव्य इस समय लोक में उपस्थित है ?' 'देवानुप्रिय भरत, तुम्हारा पुत्र मरीचि, यहां उपस्थित है ! अब से सत्ताईसवें भव में वह भरत क्षेत्र में तीर्थंकर के रूप में अवतरित होगा। अवसर्पिणी काल में हमारी कैवल्य-परम्परा का अन्तिम ज्योतिर्धर । जिसका ज्ञानसूर्य अन्धकार की आगामी · अनेक शताब्दियों को प्रच्छन्न रूप से प्रकाशित और जीवन्त बनाये रखेगा। उसे पहचानो भरत ! योगी वेश से नहीं, विभा से पहचाना जाता है ! '.. और सुनो भरत, लम्बी अनुभव-यात्रा के चक्र-पथों को पार करती हुई, हर आत्मा एक कुंवारा जंगल चीर कर, अपने विकास का पथ प्रशस्त करती है। मुक्ति का मार्ग कोई राज-पथ नहीं : वह सब का अपना-अपना होता है । मरीचि को अभी कई अंधियारे भवारण्य पार करने हैं. · · ।' 'मरीचि की अगली भवयात्रा सुनना चाहता हूँ, भगवन् !' . . और तीर्थंकर की दिव्य-ध्वनि में तब वह चक्रावर्तन घोषित हुआ। भरत पुत्र का योगैश्वर्य सुनकर प्रसन्न हुए। फिर मरीचिकुमार के समीप जाकर नमित हुए : 'धन्य हो मरीचि ! कलिकाल के भावी तीर्थंकर को प्रणाम करता हूँ । सुनो देवानुप्रिय, भगवान की दिव्यध्वनि में घोषित हुआ है : आगामी भवों में मरीचि पहले त्रिपृष्ठ नामा प्रथम वासुदेव होगा, फिर प्रियमित्र नामा दूसरा चक्रवर्ती, फिर अवसर्पिणी काल का अन्तिम तीर्थंकर ! • • 'सो कलिकाल के भावी तीर्थकर की वन्दना करने आया हूँ ! . . . ' तन से कुमार, मन से बालक, अंतरंग से योगी मरीचि, सुनकर आल्हादित और गवित हो उठा। . . पितामह आद्य तीर्थकर, पिता आदि चक्रवर्ती, और मैं प्रथम वासुदेव, द्वितीय चक्रवर्ती और फिर अन्तिम तीर्थकर ! ऐसे महाप्रतापी सूर्यवंश का वंशधर मैं स्वयम्, केवल आज का दुर्बल मरीचि नहीं, यह सब हूँ, एक साथ : इस एक देह के रक्तकोशों में, मैं एक बारगी ही कई शलाका-पुरुष हूँ।' . . . प्राण-शक्ति प्रमत्त और अदम्य हो उठी । अपने भविष्य में आश्वस्त मरीचि ने, अपने को काल के उद्दाम प्रवाह में फेंक दिया। पर भीतर कोई था, जो अपने में अचल था, और केवल अपने को देख रहा था । भरत-क्षेत्र के चूड़ांत पर खड़े दिगम्बर आकाश-पुरुष को । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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