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ही, जैसे इस सरोवर के नीलमी जलों की ये मलमलाती लहरें। · · ·इन पानियों की सुगन्धाविल शैया में अनेक बार अपनी इन्द्राणियों और वल्लभाओं के साथ क्रीड़ामग्न होकर भी, इस प्रवाह को ऐसा प्रत्यक्ष कभी नहीं देखा, नहीं जाना, जैसा कि आज देख-जान रहा हूँ। . .. 'मेरे वक्ष पर झूलती यह सहजात माला! उपपाद शैया पर मुहूर्त मात्र में, अंगड़ाई भर कर जाग उठने की तरह जब मेरा यह दिव्य शरीर आविर्भूत हुआ था, तब यह माला, मेरे साथ ही जन्मी थी। जिस द्रव्य से मेरी देह बनी है, उसीसे निर्मित है यह माला । पर सारे स्वर्गों के विविध कल्पवृक्षों के तमाम फूलों से जैसे यह गुंथी है : और हर क्षण एक नयी सुगन्ध इसमें से तरंगित होती है। . . माला तो अपनी जगह वैसी ही नवीन, भास्वर, ताजा है : सुगन्ध का प्रवाह भी वैसा ही है।' किन्तु इस काल-संध्या के तट पर से देख रहा हूँ, कि यह मेरी वही सहजाता माला नहीं है । जाने कौन एक अलक्ष्य पंखुरी छिन्न हो गई है : जाने कहीं कुछ टूट गया है : विघटित हो गया है। ___.. और अभी इसी क्षण, यह माला मेरे वक्ष पर है, फिर भी दूर उन चैत्यवृक्षों की हरियाली मर्कत आभा में दूर-दूर, दूर-दूर, चली जा रही है । और मुझे लग रहा है, मैं इस इन्द्रनीलमणि की लहरीली सीढ़ी पर हूँ, फिर भी जाने कहाँकहां चला गया है। जाने कितने आपों में बंट गया हूँ, बिखर गया है। एक और अखण्ड कोई मैं हूँ, बेशक, जो देख रहा है : पर जाने कितने 'मैं' के कक्ष एक पर एक खुल रहे हैं, चैत्य-वृक्षों की उन नाना रंगी रलिम उजियालों में । आंगन के पार अन्तहीन प्रांगणों की परम्परा : असंख्यात समुद्रों से आवेष्टित, जाने कितने लोकों में, पृथ्वियों में, स्वर्गों के पटलों में, नरकों की अतल पृध्वियों के अन्धकारों में' - 'मैं' - 'मैं मैं . 'जाने कितने मैं । अनगिनती जन्मान्तरों के चित्रपट खुल रहे हैं । स्पन्दित, उच्छ्वसित, जीवित, संवेदित, बोलते चित्र । कितना दबाव है, तनाव है, मन पर, इस धातु-अस्थि, रक्त-मांस-मज्जाहीन, कोमल तन पर मेरे । भव-भवान्तरों में भोगे सुख-दुःखों का एकाग्र सम्वेदन मेरी कुण्डलिनी में अजस्र धारा से प्रवाहित है । ___काल-बोध ? बाईस सागर बीत गये हैं इसी अच्युत स्वर्ग में । गणना से परे, पल्यों से परे, हजारों या करोड़ों वर्ष : क्या अन्तर पड़ता है। विशेष कर इस सन्ध्या के तट पर, आयु के दर्शन-बिन्दु पर, जहाँ मानो असंख्य जन्मों और देशकालों को एक साथ अपने आसपास चक्रायित अनुभव कर रहा हूँ। जी रहा हूँ। कोड़ा-कोड़ी सागरों के पार, गणनातीत काल में चला गया हूँ-अपने से पार... और देख रहा हूं अपने को जाने कहाँ-कहाँ ।
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