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'जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में, सीता नदी के उत्तरी किनारे पर, पुष्कलावती देश । वहाँ मधु नामा कोई वन । · · भीलों का राजा पुरुरवा, अपनी काली नामा अर्दा गिनी के साथ तमसाच्छन्न अरण्य में मृगया खेलता हुआ। .. दूर कहीं चमकती आंखें देख भील ने तीर ताना : कन्धे पर झूमकर काली चीख उठी : 'आह· · उतार दो तीर' : 'वह मृग नहीं है।' 'कौन है ?' 'ये वन-देवता हैं, पुरु ! अनर्थ हो जाता! उन्हें मारकर हम कहां जियेंगे?' पुरुरवा मानों शरीर था : काली थी उसका प्राण : उसकी आत्मा । वह स्पन्दित हो उठी। अचूक और निगूढ था यह संवेदन । भील-युगल उस मुद्दर नेत्रामा से खिंचता चला गया । अबोध, नग्न बालक-से सामने आ रहे थे योगीराट् सागरसेन । काली उनके चरणों में लोट कर बिलख पड़ी : भील स्तम्भित, अभिभूत देखता रह गया, योगी की वीतराग मुद्रा । वह पाषाण हो रहा : उसके भीतर से निकल कर कोई, दूर वनान्तर में ओझल होते योगी का अनुसरण कर गया।
.. देख रहा हूँ : वह भी तो मैं ही था' • 'पुरुरवा : और काली कहाँ चली गई ? अनुभव कर रहा हूँ इस क्षण : बह मार्दवी कोई अन्य थी ही नहीं। मेरी ही अपनी मौलिक मृदुता थी वह । प्रकट होकर मुझे अपनी पहचान कराने आई थी। अपने को पहली बार जाना, अपनी आत्मा को : और वह मेरे हार्द में अन्तर्लीन हो गयी । मैं अपने प्रति पहली बार जागा था उस दिन। ..
• • • फिर सौधर्म स्वर्ग में जन्म लेकर, वहाँ की पगन्धा मृदुताओं में जाने कितने पल्यों तक सुख भोगकर, सो गया एक दिन पुरुरवा । ‘एक और मैं !
- तीर्थंकर ऋषभदेव की राजनगरी अयोध्या । वहाँ के सर्वतोभद्र प्रासाद में, उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती का किरण-सा कान्तिमान पुत्र मरीचि । राजयोगीश्वर भरत भोग-समाधि में लीन थे। और कोमल किशोर मरीचि महाश्रमण ऋषभेश्वर का अनुगामी हो गया। सुकुमार वय में ही, दिगम्बर आरण्यक । अवधूत वृषभनाथ की मृत्युंजयी तपोसाधना उसे सह्य न हो सकी । काषाय और त्रिदण्ड धारण कर, स्वच्छन्द विचरता रहा मरीचि । पर भगवान के प्रभामण्डल के परिसर में ही। अपनी दुर्बलता और अपनी सीमा जानकर आत्मनिष्ठ, मौन, प्रकट में योग-भ्रष्ट, पर अन्तर में निरन्तर योगी, मरीचि समर्पित था, अपनी आत्म-प्रभा को । किन्तु अन्यों की दृष्टि में पथभ्रष्ट, कुमार्गगामी, मिथ्यादृष्टि । सांख्य तत्व के उपदेष्टा कपिल का गुरु । 'दूसरे की आत्म-स्थिति के निर्णायक हम कौन होते हैं ? हम जो स्वयं अज्ञानी हैं।
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