Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 11
________________ मैं कौन हूँ मैं कौन हूँ ? देख रहा हूँ, कि पिछले क्षण जो मैं था, वह इस क्षण नहीं हूँ। कुछ है जो बीत गया है, कुछ है जो नया आ गया है । फिर मेरे मैं होने का क्या अर्थ रह जाता है ? एक और अन्तिम, ऐसा मैं कोई हूँ ? भीतर से उत्तर आया : अरे, यह जो पूछ रहा है कि 'मैं कौन हूँ'-यह कौन है ? · · · यह जो देख रहा है कि "पिछले क्षण जो था, इस क्षण नहीं हूँ : कुछ बीत गया है, कुछ नया आ गया हैयह कौन है ? और अविकल्प इसका एक ही तो उत्तर भीतर से आ रहा है : 'निश्चय, वह तो मैं ही हूँ : ध्रुव मैं'। देख रहा हूँ कि मैं अच्युत स्वर्ग का इन्द्र हूँ । गणना और वर्णना से परे है मेरा वैभव, मेरा भोग । मेरा ऐहिक सुख । इतना ही कहना काफी होगा कि सृष्टि की चिति -शक्ति, मेरे चित्त की हर इच्छा-तरंग पर उतर कर मेरा मन चाहा रूप, रस, गन्ध, वर्ण, स्पर्श बन जाती है । . . यह अच्युत स्वर्ग है : यहाँ ऐन्द्रिक सुख समाधि की तल्लीनता तक पहुंचे हुए हैं । तरल रत्नों की इस ऐंद्रजालिक मायापुरी में काल-बोध सम्भव नहीं : दिन-रात का भेद अनुभव में नहीं आता । आयु के बीतते वर्षों का पता ही नहीं चलता । रत्नों की नानारंगी प्रभा-तरंगों में एक अन्तहीन स्वप्न चल रहा है । . . · · पर आज एकाएक यह क्या घटित हुआ है कि, सपने की यह धारा कहीं से सहसा टूटी है, भंग हुई है । और काल की गति को मैं अपनी सुषुम्ना नाड़ी में, उत्सर्पित और अवसर्पित होते देख रहा हूँ। · इन्द्रनील मणि के इस प्राकृतिक सरोवर की सुरम्य सीढ़ियों पर अकेला बैठा हूँ। लगता है जैसे किसी सन्ध्या के तट पर, नितान्त एकाकी उपस्थित हूँ। पदार्य में, अपने में, क्षण-क्षण कुछ बीतने और उत्पन्न होने के क्रम को मैं हाथ में रक्खे रत्न की तरह साफ देख रहा हूँ। द्रव्य अपने मौलिक रूप में नग्न होकर, मानों मेरे सामने प्रवाहित है । ठीक वैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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