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अनेकान्त-56/1-2
स्वभाव पर मनन करते हुए चले हैं, कहीं कहीं पुद्गल से भिन्नता दिखाते हुए और कहीं कहीं कर्म, कर्मास्रव, कर्मबन्ध आदि स्वभाव का विवेचन करते हुए और कहीं कहीं संवर और निर्जरा का उपाय निदर्शन से टीका ने अध्यात्म विद्या के अध्येताओं को विशिष्ट रूप से प्रभावित किया है।
टीकाकार के रूप में आचार्य श्री जयसेन स्वामी को जो प्रसिद्ध मिली है, वह अद्यावधि किसी ने भी प्राप्त नहीं की क्योंकि टीका लिखने की इनकी अपनी विशिष्ट विधि है। इन्होंने पदखण्डनाविधि को अपनाया है। वस्तुतः टीकाकरण की यही विधि श्रेष्ठ है। इससे मूल की सुरक्षा होती है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के मूल शब्दों की संरक्षा में इनकी प्राकृत शब्दानुसारी टीका का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने प्राकृत विलक्षणताओं पर पाठकों का विशेष ध्यान आकृष्ट किया है। टीका में सुरक्षित मूल ग्रन्थ पाठ विविध भांति से मूल्यवान् है और दीर्घतर पुनरीक्षण के लिये उनकी कर्तव्य निष्ठा वस्तुतः श्रेयस्कर है।
आचार्य श्री जयसेन स्वामी ने 439 गाथाओं पर तात्पर्य वृत्ति टीका लिखी है। समस्त गाथाओं को कुन्दकुन्द स्वामी रचित ही मानकर टीका लिखी है। समयसार को दस अधि कारों में विभक्त किया है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने जीवाजीवाधिकार को एक ही माना है, किन्तु आचार्य जयसेन ने इसको दो अधिकारों में विभक्त कर टीका की है जीवाधि का में 43 गाथाए और आजीवाधिकार में 30 गाथाएं हैं। इस प्रकार एक अधिकार को दो भागों में विभक्त करने से आचार्य अमृतचन्द्रसूरि की अपेक्षा इन्होंने एक अध्याय बढ़ा दिया। अन्त में स्याद्वाद अधिकार रूप से ग्रन्थ समाप्ति के अनन्तर जोड़ा है। आचार्य जयसेन की विशेषता है कि प्रत्येक अधिकार या उप परिच्छेद के प्रारम्भ में इन्होंने इस अधिकार का विश्लेषण विषयवस्तुओं के अनुसार गाथाओं की संख्या को भी उपस्थित कर दिया। यथा-"प्रथमतस्तावदष्टविंशतिगाथापर्यन्तं जीवाधिकारः कथ्यते।" अधिकार के अन्त में " इति समयमारव्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणाया तात्पर्यवृत्तौ स्थलसप्तकेन जो पस्सदिअप्पाणमित्यादि, सप्तविंशतिगाथाः तदनन्तरमुपसंहारसूत्रमेकमिति समुदायेनाष्टाविंशतिगाथाभिर्जीवाधिकारः समाप्तः । ”
प्रत्येक गाथा का परिचय पीठिका के द्वारा दिया गया है। इनके द्वारा उपस्थापित