Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ समयसार-तात्पर्यवृत्ति : एक चिन्तन -डॉ. श्रेयांसकुमार जैन अध्यात्म की अजस्र धारा प्रवाहित करनेवाला श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत “समयसार'' आत्मतत्त्व प्ररूपक ग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ है। इसका मंगलाचरण करते हुए ग्रंथकार ने “वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवली भणिदं" प्रतिज्ञा वाक्य लिखा है, जिसके आधार पर ग्रन्थनाम 'समयपाहुड' अवगत होता है। प्राकृत पाहुडं की संस्कृत छाया 'प्राभृतम्' है समय + प्राभृतम् दोनो शब्दों के संयोग से कृति संज्ञा 'समयप्राभृतम्' हुई। 'समयप्राभृतम्' संज्ञा की सार्थकता जानने के लिये समय और प्राभृत दोनों शब्दो की निरुक्तियां अपेक्षित हैं। 'समयते एकत्वेन युगपत् जानातीति' इस निरुक्ति के अनुसार समय शब्द का अर्थ "आत्मा" निष्पन्न होता है। अथवा 'समएकीभावेन स्वगुणपर्यायान गच्छति' इस निरुक्ति से समय शब्द का अर्थ समस्त पदार्थो में घटित होता है, क्योंकि पदार्थ अपने ही गुण पर्याों को प्राप्त है। दूसरी व्युत्पत्ति 'सम्यक् अयः बोधो यस्य सः भवति' समय “आत्मा" अर्थात् समीचीन बोध होता है जिसका, वह समय है समय शब्द का अर्थ आत्मा है। आत्मा ही जानने वाला है और इसका स्वभाव सर्व पदार्थो का सत्तात्मक बोध है। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने भी निर्मल आत्मा को समय कहा है। प्राभृत शब्द की व्युत्पत्ति 'प्रकर्षण आसमन्ताद् भृतमिति प्राभृतम्' अर्थात् प्रकर्षरूप से सभी ओर से भरा हुआ अथवा प्रकृष्टैराचार्यैर्विद्यावित्तद्विदाभृतं धारितं व्याख्यातमानीतमितिवा प्राभृतम् विद्याधनयुक्त महान् आचार्यो के द्वारा जो धारण किया गया है, वह है प्राभृत। प्राभृत का अर्थ शास्त्र है। दोनों शब्दों का समास करने पर अर्थ होगा आत्मा का शास्त्र। आचार्य जयसेन ने 'प्राभृतं सारं सारः शुद्धावस्था समयस्यात्मनः प्राभृतं समयप्राभृतम् अथवा समय एवं प्राभृतम् समयप्राभृतम्' लिखकर आत्मा की शुद्धावस्था अर्थ किया है।' इस ग्रन्थराज पर सर्वप्रथम आध्यात्मिक जागृति के अग्रदूत महाकवीश्वर

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