Book Title: Anekant 2003 Book 56 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 9
________________ अनेकान्त-56/1-2 देखी जा सकती है। किन्तु जैन संस्कृति जो कहती है, वही व्यवहार मे उतारने की कोशिश करती है। यही कारण है जैनाचार्यों ने समय की गतिविधि को देखते हुए अनेक वैदिक अनुष्ठानों व हिसात्मक कार्यो का विरोध किया है। यह विरोध जैन धर्म में सर्वभूतदया की भावना का ही प्रतिफल है। __अहिसा को जैनधर्म में व्रत माना गया है। वस्तुतः हिंसात्मक कार्यों से विरत होने में कठिनता का अनुभव होने से ही अहिंसा को व्रत कह दिया गया है, अन्यथा करुणा, अहिसा तो दैनिक कार्यो एव सुखी-जीवन का एक आवश्यक अंग है-वह मानव की स्वाभाविक परिणति है। उसे व्रत मानकर चलना उससे दूर होना है। अहिसा तो भावों को शक्ति है। आत्मा की निर्मलता एवं अज्ञान का विनाश है। कोई भी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अचानक परिवर्तन लाकर अहिसा को उत्पन्न नही कर सकता। अहिंसा का उत्पन्न होना तो आत्मा में परिवर्तन होने के साथ होता है। आत्मा के परिवर्तन का अर्थ है, उसे पहिचान लेना। यह पहिचान ही निजको जानना है, सारे विश्व को जानना है। जब व्यक्ति इस अवस्था पर पहुँच जाता है तो समस्त विश्व के जीवो के दु:ख का स्पन्दन उसकी आत्मा में होने लगता है। यह करुणामय स्पन्दन होते ही हिसा स्वय तिरोहित हो जाती है। उसे हटाने के लिए कोई अलग से योजना नही करनी पड़ती। अहिंसा उत्पन्न हो जाती है। हिंसा की निवृत्ति और अहिंसा के प्रसार के लिए जैन धर्म में गृहस्थों को अनेक व्रत-नियमों को पालन करने का उपदेश दिया गया है। प्रत्येक कार्य को सावधानी पूर्वक करने एवं प्रत्येक वस्तु को देख-शोधकर उपयोग में लाने का विधान गृहस्थ के लिए मात्र धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक भी है।" जीवों के घात के भय से जैन गृहस्थ अनेक व्यर्थ की क्रियाओं से मुक्ति पा जाता है। प्रत्येक वस्तु को देखभाल कर काम में लाने की आदत डालने से मनुष्य हिसा से ही नहीं बचता, किन्तु वह बहुत-सी मुसीबतों से बच जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने अनर्थदण्डव्रतों का विधान किया है। रात्रिभोजन के त्याग का विधान भी इसी प्रसंग में है। इस अवलोकन से स्पष्ट

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