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३०, वर्ष २३ कि.१
भनेकान्त
वे तुरन्त राम के चरणों की धूलि लगा कर उनके वस्त्रों इतना कहते हुए लक्षमण राम से अपने को अलग को उतारने लगी।
करते हुए वहां से चल पड़े । चलते हए उन्होंने अपने सारे अब तक तो लक्षमण किंकर्तव्य विमूढ़ थे, पर, सीता अलंकारों को जहां तहाँ फेंकना शुरू कर दिया और दरद्वारा राम के वस्त्रालंकार का उतारना उनसे नही सहा वाजे तक पहुँचते-पहुँचते उनके शरीर पर सिवा षोती गया।
और चादर के और कुछ नही रहा । वे चीत्कार कर उठे। राम और सीता के बीच में राम और सीता दोनों अवाक हो देखते रहे। माकर सीता को रोकते हुए बोले-'बस अब बहुत हो इतने ही में उन्होंने देखा कि माता कौशल्या दासियों गया इन वस्त्रालंकारों को छुप्रा तो...."।'
का सहारा लिए झुकी हुई चली आ रही है। कुछ सीता पाश्चर्य चकित सी बोलीं-'तो क्या करोगे?' ही घंटों में वृद्धा सी दीखने लगी थी।
राम ने हंसते हुए लक्षमण को अपने बाहुओं में भर राम और सीता के वस्त्रों को देख कर वे प्रचंमित लिया और सीता से बोले-'तो क्या पूछती हो? तो जहां थी वहीं खड़ी हो गई। राम और सीतो तब तक लक्षमण फूट-फूट कर रो उठेगा।'
उनके पास पहुंच चुके थे। और, सचमुच लक्षमण जोर से फूटफूट कर रोने लग कौशल्या का शरीर कांप रहा था, उनके पांव लड़गए। उन्हें हिचकी बंध गई। सीता और राम उन्हें खड़ाने लगे थे। राम ने झट उन्हे सम्हाल लिया सीता बच्चे की तरह पुचकारने और समझाने लग गए। जब पांचल से हवा करने लगी। किसी प्रकार राम, लक्षमण को चुप कराने में समर्थ नही तभी कौशल्या पावेश पूर्वक सभी सहारों को छोड़ती हुए तो उनके नयनों से भी प्रभु धारा वह निकली। हई खड़ी हो गई। उनके पलकों में स्पन्दन हुप्रा और पल
सीता ने स्थिति सम्हाली। उन्होंने लक्षमण को भर में वे संयत पर गम्भीर दीखने लगी। सम्बोधित करते हुए कहा-'तो, अब संभालो अपने प्यारे राम ने पूछा-'पिता जी अब कैसे है ?' कौशल्या नै भैया कों, ये भी तुम्हारे साथ रो रहे है। लक्षमण ने चौंक रूखीसी से राम को देखा पर बोली सीता से । आंखों से कर भैया राम का मुखड़ा देखा तो लगे अपने प्रांचल से
अपन प्राचल से भर भर आंसू बह रहे थे । '-बैटी मैं सब समझ गई। तू उनके नयनों को पोछने और राम लगे लक्षमण के नयनों जनक की पुत्री है। तू देह को, राज्य को परिवार को कुछ को पोंछने ।
महत्व नही देती। मैं क्या समझ इन बड़ी बातों को। सीता खिलखिला कर हंस पड़ीं।
सोचा था, कुछ दिन तुम्हारे साथ रहना होगा तो शायद - लक्षमण ने खोजकर कहा-'मुझे जितना चाहो चिढ़ा मेरे अन्दर का मोह ममत्व भी कम हो जाय । -तू राम लो, पर देखता हूँ मुझे भी भैया के साथ वनवास में जाने के साथ है तो मै निश्चिन्त हूँ' और, कौशल्या प्रचेत हो से कौन रोकता है।'
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