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५६ वर्ष २३ कि०२
अनेकान्त
वाचना से पहले की ही प्रमाणित करता है। दिगम्बर का उल्लेख करता है जिन्हें अपने भाव या माध्यात्मिक परम्परा के अनुसार ज्ञाता धर्मकथा या नायाधम्मकहानो स्वभाव में कुछ कलुषता मा जाने के कारण दुःख में अनेक प्रास्थान और उपाख्यान थे, अन्तगड में नीम, भोगना पड़ा था। जैसे कि बाहुबलि की माध्यात्मिक रामपुत्र मादि का वर्णन था, अनुत्तरोपपातिकदसा या उन्नति उसके अभिमान के कारण अटक गई थी हालांकि अनुत्तरदसा में ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, शरीर का मोह उसे सर्वथा हो तब नहीं था। निदान के नन्दन, शालिभद्र, अभय वारिषेण, चिलातपुत्र"मादि- कारण, सन्त मधुपिंग मुनिधर्म स्वीकार नहीं कर सका प्रादि के वर्णन थे। इनमें से कुछ कथानक वर्तमान अधं- और सन्त वशिष्ठ ने दुःख उठाया था। [४४-४६] । 'मागधी भागमों में से कुछ में प्राप्य है। परन्तु प्राचीन बाहु यद्यपि जैन मुनि था फिर भी अपनी प्रान्तरिक घृणा प्रन्थों के प्रभाव में यह कहना असम्भव है कि उनकी के कारण दण्डक नगर को भस्म कर दिया और रौरव नरक दिगम्बर कथाएं कैसी थीं ? प्रागमों के उपलब्ध दिगम्बर को प्राप्त किया। इसी तरह द्वैपायन भी यद्यपि बाहर से ग्रंश ही कदाचित् उन तीन महान् टीकामों की पृष्ठ-भूमि मुनि ही दीखता था परन्तु मुनि के यथार्थ गुण उसमें नहीं है कि जो उनके अन्तिम स्वरूप मे धवला, जयघवला और थे और इसीलिए वह अनन्त संसार भ्रमण करता रहा महाधवला के नाम से प्रख्यात है। अब तक के प्रकाशित [४६-५०] | शिवकुमार, नवकुमारियो से वेष्ठित होने इनके अंश अपेक्षाकृत बहुत ही कम हैं और उनका विषय पर भी, अपने वीर और विशुद्ध मन के कारण संसारबिलकुल विशिष्ट है। इसलिए कथानको का, यदि उनमे चक्र का नाश कर सका था। भव्यसेन भावश्रमण नही हो कुछ कथानक प्राप्त हों तो भी, कोई अनुमान नहीं लगाया सका, हालाकि उसने १२ अग पोर १४ पूर्व ही नहीं, जा सकता है। उनमें कुछ ऐसी दृष्टान्त कथाएं भी है कि अपितु संसार का सारा शास्त्र ज्ञान प्राप्त कर लिया था। जिनमें शिष्यों का वर्गीकरण और विशष्टिकरण किया पक्षान्तर में शिवभूति ने जिसके कि भाव विशुद्ध थे, तुसगया हो । प्राचीन दिगम्बर साहित्य का दूसरा स्तर कुन्द- मास की माला जपते-जपते ही केवलज्ञान प्राप्त कर कन्द, यतिवषभ, चटकेर और शिवार्य के ग्रन्थ है । कुन्द- लिया [५१-५३]। मत्स्य शालिसिक्थ तक भी भावों की कुन्द के माने जाने वाले ग्रन्थों मे निर्वाणकाण्ड नित्य-पाठ अपवित्रता के कारण नरक मे गया [८६] । यह बताने का स्तोत्र है और इसमें जैन परम्परा के अनेक प्रमुख के लिए कि शील रहित ज्ञान से ही स्वर्गादि ऊध्वं लोकों व्यक्तियों को उनके निर्वाण-स्थलों के नाम के साथ नामा- में जाने का मार्ग प्रशस्त नहीं हो जाता है, शीलपाहुड मे वली दी गई है एवम् उन सब को नमस्कार किया गया है। सुरत्तपुत्त" का दृष्टान्त उद्धृत किया गया है कि जो दस इससे हमें जैन पुराण और जिनमे जैन बड़ी पूज्य दृष्टि पूर्व का ज्ञानी होते हुए भी नरक में गया [३०] । यति रखते हैं ऐसे व्यक्तियों की प्रादि पूंजी का कुछ कुछ वृषभ की तिलोयरण्णत्ति" में ६३ शलाका पुरुषों की माभास मिल जाता है। भावपाहुड उन कुछ व्यक्तियों
या ३० उपाध्ये :प्रवचनसार [बंबई १९३५] इन्ट्रो. पृ. ३३ ।
पास २८ देखो प्राकृत श्रुतभक्ति तत्वार्थसूत्र पर पूज्यपाद की ३१ संभवतया सम्पादक द्वारा की संस्कृत छाया मे सात्य। सर्वार्थसिडि, १. २०, मोर उसी पर प्रकलंक का कीपुत्र से इस नाम का तुल्यकरण किया गया है।
राजवार्तिक; धवला सहित षट्खण्डागम [अमरावती ३२ इसका वक अंश परख के लिए मैने जैन सिद्धान्त १९३६] भाग १. पृ. ९६ मादि; गोम्मटसार, भवन, मारा के लिए १९४१ में सम्पादन किया था जीवकाण्ड [बंबई १९१६], पृ. १३४ मादि ।
जो पहले जैन सिद्धान्त भास्कर में पोर पीछे पृथक २६ प्रो. हीरालाल ने घवला, भाग २ [भमरावती पुस्तकाकार प्रकाशित हुमा था। अब मैं फिर से
१९४०] के इण्ट्रोडक्शन, पु. ४१-६८ में दिगम्बर इसका सम्पादन कर रहा है और वह छपने दे भी ..... मौर श्वेताम्बर शास्त्रों में उपलब्ध दृष्टिवाद के विव- दिया गया है। मूल पाठ के साथ हिन्दी अनुवाद
रण का तुलनात्मक विचार विशद रीति से किया है। भी है।