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देवगढ़ की जन कला का सांस्कृतिक अध्ययन
देवगढ़ को वर्तमान स्थिति
का संक्षिप्त वर्णन है। देवगढ़ उत्तर प्रदेश में, झाँसी जिले की ललितपूर तृतीय अध्याय में मन्दिर वास्तु के उद्भव और तहसील की वेतवा नदी के किनारे स्थित है। मध्य रेलवे विकास तथा देवगढ के मन्दिरों की विशेषताओं को सवि. के दिल्ली-बम्बई मार्ग के ललितपुर स्टेशन से यह दक्षिण- स्तार समीक्षा पश्चिम में ३३ किलोमीटर की पक्की सडक से जुड़ा है। चौथे अध्याय मे तीर्थकरों, यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, प्राचीन देवगढ विन्ध्याचल के पश्चिमी छोर की एक प्रतीकात्मक देव-देवियो प्रादि की मूर्तियों का सूक्ष्म शाखा पर गिरिदुर्ग के मध्य स्थित था, जवकि आज वह वर्णन है।। उसकी पश्चिमी उपत्यका में बमा हुया है। जनसख्या पाचवे अध्याय में विद्याधरों, प्राचार्य-उपाध्यायों, लगभग ३०० है। एक आधुनिक दिगम्बर जैन मन्दिर, साध-साध्वियों, श्रावक-श्राविकानों प्रादि की मूर्तियो, जैन धर्मशाला, शासकीय विश्रामगृह और संग्रहालय है। पाठशाला-दृश्यों, युग्मों, मण्डलियों, पशु-पक्षियों तथा जैन संग्रहालय भी बन रहा है। ग्राम के उत्तर मे प्रसिद्ध अन्य जीव-जन्तुओं, प्रतीको, प्रासनों, मुद्रामों प्रादि का दशावतार मन्दिर और शासकीय संग्रहालय तथा पूर्व में अध्ययन है। पहाड़ी के दक्षिण-पश्चिमी कोने पर प्राचीन जैन मन्दिर, छठे अध्याय मे देवगढ़ के प्राचीन समाज के धार्मिक मानस्तम्भ प्रादि है। इस पहाडी की अधित्यका को घेरे जीवन का विस्तृत विवेचन है। हुए एक विशाल प्राचीर है जिसके पश्चिम में कुजद्वार सातवें अध्याय मे देवगढ़ के समाज और संस्कृति तथा पूर्व में हाथी दरवाजा के बाहर है। इसके मध्य का सूक्ष्म अध्ययन है। एक प्राचीर और है जिसे 'दूसरा कोट' कहते है । इमी में
पाठवे अध्याय मे वहा के जैन स्मारको पर प्राप्त जैन मन्दिर है। इस कोट में भी एक कोट था जो अब
अभिलेखो का वर्णन है। ध्वस्त हो गया है। इसके बीच एक प्राचीरनुमा दीवार वनायी गयी है जिसके दोनो ओर हजारो खंडित मूर्तियाँ
नवे अध्याय मे इस शोधप्रबन्ध का उपसंहार किया जडी है । पहले प्राचीर के दक्षिण पश्चिम मे वगह मन्दिर
गया है। और दक्षिण में बेतवा के किनारे नाहरघाटी और राज
अन्त मे पाच परिशिष्ट, अभिलेखसूची और उनका घाटी है।
मक्षिप्त विवरण, अभिलेखपाठ, सहायक ग्रन्थसूची, चित्रा
वलि का परिचय तथा चित्रावलि है। शोधप्रबन्ध का सारांश
प्रेरणा प्रारम्भ में सात पृष्ठ की भूमिका है :
यह शोधप्रबन्ध कितना महत्वपूर्ण है, इसका प्रमाण प्रथम अध्याय मे देवगढ़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि परीक्षक महोदयो की सम्मतियां हैं। देवगढ़ क्षेत्र के जैन स्पष्ट करने के पश्चात् उन सभी प्रयत्नो का उल्लेख किया प्रबन्धकर्तायों ने इस ग्रथ के लिखने में बहुत उत्साहवर्धन गया है जो शासकीय और सामाजिक स्तर पर विभिन्न
पर विभिन्न किया जो अन्य तीर्थ क्षेत्रो के प्रबन्धको को अनुकरणीय विद्वानों एव संस्थानों द्वारा देवगढ की कला के अध्ययन
है । नवोदित विद्वानों को भी ऐसे उपयोगी विषय शोधके लिए किये गये है। देवगढ़ की प्राचीन स्थिति और
कार्य को चुनने की प्रेरणा लेनी चाहिए । इस शोधप्रबन्ध नामों लुमच्छगिरि, कीर्तिनगर आदि पर प्रकाश डाला
के निर्देशक प्रो० कृष्णदत्त जी वाजपेयी से तो स्वयं जैन गया है और इतिहास लिखा गया है।
विद्वानो को भी बहुत कुछ सीखना चाहिए, जिनके द्वितीय अध्याय मे देवगढ के प्रत्येक जैन स्मारक का निर्देशन में अनेक विद्वान् जैन विषयो पर भी शोध कर विशद और सूक्ष्म सर्वेक्षण तथा वर्णन है । जैनेतर स्मारकों रहे है।