Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 239
________________ २२०, बर्ष २३,कि. ५-६ प्राकृत कोश से भिन्न नहीं हो सकता वे अपभ्रश के स्व. अपभ्रंश की शब्द-संपदा केवल देशज या माधुनिक भारतन्त्र अस्तित्व को नकारते हुए प्रतीत होते हैं। किन्तु अब तीय मार्यभाषामों की नहीं है, उसमे संस्कृत-प्राकृत तथा भाषा वैज्ञानिक अध्ययन से यह सिद्ध हो चुका है कि प्राकृत द्रविड़ भाषामों के शब्द उसी प्रकार समाये हुए है जैसे तथा अपभ्रश भिन्न-भिन्न युगों की साहित्यिक भाषाएँ कि हिन्दी में विविध प्रान्तीय बोलियो के शब्द सहज ही रही है। उनकी शब्द तथा पद-रचना मे ही नही वाक्यो समाविष्ट है । स्व. डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने सर्वकी बनावट तथा शब्द-सम्पदा में भी विशिष्ट अन्तर प्रथम 'अपभ्रंश-कोश' के सम्पादन का कार्य अपने हाथ में लक्षित होता है। केवल उच्चारण की भिन्नता से ही नही लेने का विचार किया था मौर सम्भवतः कुछ कार्य भी किया युग की मनोवृत्ति तथा सम्पर्क के कारण अपभ्रश मे जो था। उन्हीं की प्रेरणा से मैने सन् १९६४ मे प्रथम बार यह बहुविध परिवर्तन हुए उसके कई रूप माज भी साहित्य प्रयत्न किया था कि ऐसे शब्दो का प्राकलन किया जाये में लक्षित होते हैं। प्रतएव यह कथन-अपभ्रंश-कोश जो प्राकृत कोशो मे तथा संस्कृत के कोशों में नहीं मिलते प्राकृत से भिन्न नही हो सकता। क्योकि अपभ्रंश के बहुत हैं। ऐसे लगभग एक सहस्र शब्दो का सकलन किया जा से शब्द प्राकृत मे मिलते है । जो शब्द सरलता से प्राकृत चुका है। कोशों में नही मिलते वे देश्य वर्ग में परिगणित किये जाते विचारणीय यह है कि केवल उन्ही शब्दो का माकलन है। इस प्रकार एक और अपभ्रश का शब्द-समूह देशज है किया जाये जो 'प्राकृत-शब्द-महार्णव' में नहीं मिलते या पौर दूसरी मोर माधुनिक भारतीय पार्यभाषामों का- अपभ्रंश भाषा मोर साहित्य के प्रध्येता अनुसन्धित्सु का उचित प्रतीत नहीं होता। ऐसे ही विचारो के कारण दृष्टि में रखकर एक परिपूर्ण अपभ्र श कोश का निर्माण माज तक किसी अपभ्रंश-कोश का निर्माण नहीं हो सका। किया जाये। -हिन्दी-विभाग, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नीमच (मन्दसौर : म.) [पृष्ठ २११ का शेषांश ] मनमान में अभिनिबोध मतिज्ञानाभास और भृत- निबोध कहा है, जो वचनात्मक नहीं है और षट्खण्डास्पता-जैन वाङ्मय मे अनुमान को अभिनिबोधमतिज्ञान गमकार तथा उनके व्याख्याकार वीरसेन ने परार्थापौर श्रति-दोनो निरूपित किया है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने नुमान को श्रुतरूप प्रतिपादित किया है, जो वचनात्मक उसे अभिनिबोध कहा है जो मतिज्ञान के पर्यायो मे पडित होता है । विद्यानन्द का यह समन्वयात्मक सूक्ष्म चिन्तन है । षट्खण्डागमकार भूतबलि-पुष्पदन्त ने उसे 'हेतुवाद' जैन तर्कशास्त्र में एक नया विचार है जो विशेष नाम से उसे व्यवहृत क्यिा है और श्रुत के पर्यायनामो उल्लेख्य है, इस उपलब्धि का सम्बन्ध विशेषतया जैन ज्ञानमें गिनाया है । यद्यपि इन दोनो कथनो मे कुछ विरोध- मीमासा के साथ है। सा प्रतीत होगा। पर विद्यानन्द ने इसे स्पष्ट करते हुए इस तरह जैन चिन्तको का अनुमान-सम्बन्धी चिन्तन लिखा है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने स्वार्थानुमान को अभि- भारतीय तर्कशास्त्र के लिए कई नये तत्व देता है। -संस्कृत महाविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।

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