Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 252
________________ शान्तिवर्णीकृत प्रमेयकण्ठिका २३६ प्रमाण पोर फल में प्रभेद तथा कार्य और कारण रूप से होने से किसी के प्रत्यक्ष अवश्य हैं । इस हेतु से सर्वज्ञ की पर्याय भेद होने के कारण दोनों में भेद है। शान्तिवर्णी सिद्धि होती है। ने यह भी लिखा है कि ज्ञान रूप से दोनों में अभेद है भट्ट प्रकलंक ने सर्वज्ञता का समर्थन करते हुए लिखा तथा प्रमाण पोर फल रूप से भेद है। है कि प्रात्मा में समस्त पदार्थों के जानने की पूर्ण सामर्थ्य जैन और बौद्ध न्याय के अतिरिक्त अन्य सभी नया- है। संसारी अवस्था में उसके ज्ञान का ज्ञानावरण से यिकों ने ज्ञान को प्रमाण का फल तथा ज्ञान के कारणों पावत होने के कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब को प्रमाण माना है। इस प्रकार वे प्रमाण और फल में चैतन्य के प्रतिबन्धक कमों का, पूर्ण क्षय हो जाता है तब सर्वथा भेद मानते है । विपरीत इसके बौद्ध प्रमाण प्रौर उस अप्राप्यकारी ज्ञान को समस्त प्रों के जानने में क्या फल का सर्वथा प्रभेद मानते हैं । बाधा है (न्यायवि० श्लो० ४६५)। यदि अतीन्द्रिय सर्वज्ञसिद्धि पदार्थों का ज्ञान न हो सके तो सूर्य, चन्द्र प्रादि ज्योतिर्ग्रहों सर्वज्ञता की खान्तिक पृष्ठभूमि की ग्रहण आदि भविष्यकालीन दशाओं का उपदेश कैसे जैनदर्शन में प्रात्मा को ज्ञान गुण युक्त चेतन द्रव्य हो सकेगा। ज्योतिज्ञानोपदेश प्रविसंवादी और यथार्थ माना गया है। कर्मों के प्रावरण के कारण उसका यह देखा जाता है । अत: यह मानना अनिवार्य है कि उसका ज्ञान गुण पूर्ण रूप से प्रकट नहीं होता। जैसे-जैसे कर्म का पथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थ दर्शन के बिना नही हो प्रावरण हटता जाता है, वैसे-वैसे ज्ञान का विकसित रूप सकता। जैसे सत्य स्वप्न दर्शन इन्द्रिय मादि की सहायता प्रकट होता जाता है। इस प्रकार जब प्रावरण सर्वथा हट के बिना ही भावी राज्यलाभ भादि का यथार्थ स्पष्ट जाता है तो निरावरण केवलज्ञान प्रकट होता है । इसे ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान क्षायिक ज्ञान भी कहते है। केवल ज्ञानी त्रिकालवर्ती सभी भी भावी पदार्थों मे सवादक और स्पष्ट होता है। जैसे रूपी-प्ररूपी द्रव्यो को समस्त पर्यायो को एक साथ जानता ईक्षणिकादि विद्या प्रतीन्द्रिय पदार्थों का स्पष्ट भान करा है। कुन्दकुन्द ने लिखा है - "जं ताकालियमिवरं जाणदि जगव समतदो सम्वं । देती है, उसी तरह प्रतीन्द्रिय ज्ञान भी स्पष्ट प्रतिभासक होता है (सिद्धिवि० न्यायवि० आदि)। प्रत्यं विचित्त विसमं तं जाणं खाइयं भणिय ।। प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा हैजो ण विजाणवि जुगवं प्रत्ये तेकालिके तिवणत्थे । "प्रजातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धस्तत्सिविः ।" णाएं तस्स ण सक्कं सपज्जय दम्मेक वा ।। -प्रमाणमी० ११६ वश्वमणंतपज्जयमेकमणताणि दध्वजावाणि ॥ सर्वज्ञता की सिद्धि में बाधक प्रमाण का प्रभाव ण विजाणवि जवि जुगवं कब सो सव्वाणि जाणादि ।।" । प्रकलक ने सर्वज्ञता की सिद्धि में एक और यह हेतु -~-प्रवचनसार १।४७.४६ सर्वशसिद्धि का दार्शनिक प्राधार दिया है कि सर्वज्ञता की सिद्धि में कोई भी बाधक प्रमाण सर्वज्ञ की उपयुक्त सैद्धान्तिक मान्यता को बाद के नही है। बाधक का प्रभाव सिद्धि का बलवान् साधक है। दार्शनिको ने तार्किक प्राधार देकर सिद्ध किया है। मुख्य जैसे मैं सुखी हूँ यहाँ सुख का बाधक प्रमाण नहीं है। आधार अनुमान प्रमाण है । समन्तभद्र ने लिखा है- चूकि सर्वज्ञ की सत्ता में कोई बाधक प्रमाण नहीं है, इस"सूक्ष्मान्तरितदूराः प्रत्यक्षाः कस्यचिव्यथा। लिए उसकी निधि सत्ता सिद्ध है। प्रकलक ने लिखा हैअनुमेयत्वतोऽन्याविरितिसर्वज्ञसंस्थिति:॥" प्रस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासभवद्वापकप्रमाणत्वात् -आप्तमीमासा श्लो०५ सुखादिवत् ।' -(सिद्धिवि०) सूक्ष्म पदार्थ परमाणु प्रादि, अन्तरित राम, रावण इसी सरणि पर बाद के जैन दार्शनिकों ने सर्वशसिद्धि प्रादि, दूरार्थ सुमेरु पर्वतादि अग्नि प्रादि की तरह अनुमेय का विस्तृत विवेचन किया है। -L २२, नवीन शाहदरा दिल्ली-३२

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