Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 272
________________ जैन दर्शन में पारम-व्य विचार २५० इस प्रकार हम स्वभाव परिणति वाले शुद्ध प्रात्मा को जब माना गया है। यही पात्मा अपनी जगत्प्रवृति में उलझ जाने विभावप रिणति करते हुए देखते है, तभी मर्त पुदगलो से के कारण ससरण करता हुग्रा भनेक जन्म धारण करता संश्लिष्ट होने के कारण प्रात्मा को 'मूर्त' भी कहा जाता हुआ एक देह से दूसरे देह में प्रविष्ट होता रहता है। है । किन्तु वस्तुतः यह प्रात्मा अपने शुद्धरूप मे इन्द्रियों इसी ससरण से युक्त पात्मा को 'संसारी' की संज्ञा दी के माध्यम से न तो किसी पदार्थ को स्वयं ग्रहण करता है गयी है। यह जब तक जगत् के प्रत्येक पदार्थ को 'अपना' (अतीन्द्रिय-स्वभावात्) और न ही दूसरे जीव इसे इन्द्रियों समझता रहता है तब तक इसे जैन दार्शनिकों के अनुसार के माध्यम से ग्रहण कर सकते है इसलिए इसको 'प्रलिङ्ग 'बहिरात्मा' कहा जाता है, जब यही प्रात्मा अपनी सासारिक ग्रहणम्' भी कहा गया है। सांसारिक प्रवृत्ति मे सलग्न जीव दृष्टि को बदलकर 'सम्यग्दृष्टि' स्वरूप को प्राप्त करता है अपने पुद्गल कर्मों का कर्ता होता है क्योकि परिणाम और तब इसे 'अन्तरात्मा' कहा जाता है। तथा अपने इसी परिणामी मे अभेद मानने से जीव की समस्त परिणाम रूप वैराग्य को प्रगतिशील रहते हुए जब समस्त घातिकर्मों का क्रियायों को जीव की ही क्रिया के रूप में मानना पडता है. विनाश तथा जगत् के समस्त पदार्थों का सम्यक ज्ञान प्राप्त किन्तु जब इसी परिणाम को शुद्ध दृष्टि से देखा जाता है तो कर लेता है, तब इसे 'परमात्मा' (सकल) कहते है और जीव इन समस्त परिणामो-क्रियायोका कर्ता सिद्ध नही होता इसके बाद घाति तथा प्रघाति सभी कर्मों के विनाशोपरान्त है जीवको इसी प्रकार भोक्तृत्व और प्रभोक्तृत्वरूप माना गया शरीर रहित होकर सिद्धत्व को प्राप्त करता है, तब इसे है। प्रात्मा के शरीर प्रमाण को अन्य दर्शनों से पृथक रूप मे परमात्मा' (विकल) कहते है इस अवस्था को प्राप्त होने मानते हुए जैन दार्शनिको ने स्पष्ट तया प्रतिपादित कर पर ही जीव का 'ऊर्ध्वगति स्वभाव' सार्थक होता है। दिया है कि प्रात्मा मे एक ऐसी विशिष्ट शक्ति है जिससे जन्म-मरणादि अवस्थानों में ससरण करता हुमा जीव, वह अपने प्रदेशो के यथावसर सकोच एवं विस्तार मे पूर्ण- अनेक प्रकार के कमों के करने से विभिन्न प्रकार के जन्म तया समर्थ है । यही कारण है वह चीटी जैसे लघु शरीर मरणादि के प्राश्रयभूत शरीरों को प्राप्त करता हुमा से लेकर हाथी जैसे दीर्घ शरीर तक में प्रविष्ट होकर अपने अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करता है। को मुस्थित रखता है। जब हम इसी सिद्धान्त के प्राधार इन्ही योनियो के प्राधार पर सासारिक जीव को चार पर दूसरे (जनेतर) ग्रन्थो पर भी दृष्टिपात करते है तो श्रेणियो- दव, मनुष्य, नारक एवं तिर्यञ्च-मे विभाजित पाते है कि महाभारत के श्री कृष्ण ने अपना विराट स्वरूप करके, जैन दार्शनिको ने एक पुष्ट सिद्धान्त स्थापित कर जब अर्जुन को दिखलाया, तथा रामायण में सुरसा राक्षसी दिया है कि सत्कों (पुण्यो)से सम्प्राप्न देवयोनि ही हमारा पौर रामभक्त हनुमान ने अपने अपने शरीरों के विस्तार चरम लक्ष्य नहो है जैसा कि कुछ वैदिक दर्शन मानते किए है तो उनके उन विस्तृत अङ्गो मे भी तो उसी तरह की है। बल्कि वह भी सासारिक जीवो की एक उच्च या चेतनशक्ति का विवरण दिया गया है जैसा कि उनके विस्तार श्रेष्ठ (प्रपेक्षाकृत) श्रेणी ही है । इन चारो ही प्रमुख विसे पूर्व के मङ्गो मे थी। यदि प्रात्मा मे उपसहार और प्रसर्पण भागों के विश्लेषण के प्रसङ्ग में प्रत्येक विश्लेषण की प्रमुख की शक्ति न मानी जाये तो उन विस्तृत अङ्गोका क्या स्वरूप विशेषताओं का भी उल्लेख सूक्ष्मरूपेण किया गया है । जैसे होगा? विचारणीय है !किन्तु कुछ अवसरी (वेदना-कषाय- देवों के विभाजन में उनकी उन समस्त श्रेणियों का मनुष्य विक्रिया प्रादि) में प्रात्मा को देह प्रमाण नही माना गया क्षेत्र की श्रेणियो (राजा से लेकर सेवको तक की श्रेणियो) है । क्योंकि इस अवस्था मे मात्मा के प्रदेश शरीर से बाहर की तरह स्पष्ट विवेचन, पौर उनमे अन्य मनुष्य प्रादि भी निकलकर जाते है। इसी प्रात्मा को संवित्ति समुत्पन्न श्रेणियो की अपेक्षा श्रेष्ठता का कारण नारकियो मे तदितर केवलावस्था में व्यवहार से(ज्ञान की अपेक्षा से)लोक व्यापक श्रेणियों को अपेक्षा गर्हता, नीचता एव अशुभता के साथ भी माना है। इसी तरह समाधिकाल में पञ्चेन्द्रिय और इनके भी आवास प्रादि की श्रेणियों का प्रतिपादन, मनुष्यों मन के विकल्प से रहित होने के कारण आत्मा को 'जड़' भी के विवेचन में मनुष्य-क्षेत्र मनुष्यों की जातियों मादिक.

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