Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 257
________________ २३२३० ५-६ -अनेकान्त को धाने यादि का वृत्तान्त मुझे बतलाया बन्धुसुन्दरी हुमा । उसी समय देवी तिलकमंजरी ने, भदृश्य रूप से ने हमारा पुनः पाणिग्रहण कराया । नगरदर्शन हेतु एक निशीथ नामक दिव्य पट भेजा था । उस शुक को जैसे ही मैंने उठाया कि दिव्य पट के प्रभाव से वह गन्धर्वक बन गया। इस माश्चयं से चमत्कृत गन्धक ने अपनी कथा कही । T अयोध्या में प्रापके प्रथमदर्शन के पश्चात् चक्रवर्ती विचित्रवीर्य से दिव्य दारुमय विमान लेकर मैं कांची की घोर वेग से चला मार्ग में मूच्छित मन्यसुन्दरी को लेकर शीघ्र ही अपहृत करने हेतु, भगवान महावीर के जिनालय के ऊपर से दुर्भाग्यवश जा निकला। उसके रक्षक महोदर यक्ष से वाद-विवाद के कारण शापवश शुक बना दिया गया। महोदर ने ही बताया कि उसने समुद्रमरण से समरकेतु और उसके नाविकों तथा मलय- सुन्दरी की रक्षा की थी उसी ने अपनी दिव्य शक्ति से विमान सहित मलयसुन्दरी को श्रदृष्टपार सरोवर मे उपस्थित कर दिया था इसी महोदर ने बेतास बनकर राजा मेघवाहून की परीक्षा ली थी। 1 तत्पश्चात् समरकेतु प्रपने शिविर में प्राया धोर geet लेकर बन्धु सुन्दरी भन्तःपुर में भाई । फांसी लगाने की घटना से दुखी पिता ने मुझे वायु को न देने का निश्चय करके प्रशान्तबंराश्रम को रातोंरात भेज दिया । वहाँ पर एक दिन सायंकाल एक ब्राह्मण पाया मौर उसने कुलपति को बच्चायुप और समरकेतु के युद्ध तथा उसमें समरकेतु की दीर्घनिद्रा का समाचार सुनाया । उसको सुनकर मैंने पुनः समुद्र में मरण करने का निश्चय किया किन्तु तरंगलेखा को प्राती देखकर निकटस्थ किपाक नामक विष फल का भक्षण कर लिया। मूर्च्छा के पश्चात् जब मेरी निद्रा समाप्त हुई तो सरोवर में पड़े हुए एक दाम विमान में अपने को पड़े हुए पाया। मैने पुनः जल मे मरने की कामना से अपना गात्रिका बन्धन दृढ़ करते उसमें हुए लेख बंधा पाया । एक तत्पश्चात् प्रियतम से मिलने की भाशा से मरणनिश्चय, छोड़कर यहां पर ही एकाकिनी रहती हुई भगबद-भक्ति में समयापन करती है। यहीं पर चित्रलेखासे पूर्व परिचय के कारण देवी पत्रलेखा एवं उनकी पुत्री तिलकमंजरी से परिचय हुआ और यह ज्ञात हुआ कि वह दारुमय विमान विचित्र वीर्य चक्रवर्ती ने अपनी दूसरी पुत्री पत्रलेखा के लिए गन्धर्वक द्वारा भेजा था। मलयसुन्दरी की कथा को सुनकर मैंने उसे प्राश्वस्त किया और तुम्हारे जीवित होने का समाचार सुनाया । तत्पदात हरिवाहन ने एक पत्र लिखा जिसे एक शुक लेकर उसके स्कन्धावार को ले गया । इसी बीच मलयसुन्दरी की दासी चतुरिका ने तिलकमंजरी की अस्वस्थता का समाचार दिया। उसने तिलकमजरी के पुष्पा वचय, एक हाथी के सरोवर मे गिरने, और सभी से तिलकमंजरी की प्रस्वस्थता का समाचार दिया ) । मलयसुन्दरी ने उससे कहा कि मेरे यहाँ राजकुमार हरिवाहन अतिथि रूप से उपस्थित है प्रतएव उसे एकाकी छोड़कर नहीं पा रही है। दूसरे दिन तिलकमजरी स्वयं धाई और मलयसुन्दरी .को भोर मुझे अपने भवन को ले गयी । भोजन के पश्चात् जब मैं बैठा था, तभी वही शुक एक पत्र लाकर उपस्थित पत्र को पढ़कर तुम्हें ( समरकेतु को ) देखने की इच्छा से मलयसुन्दरी और तिलकमंजरी से अनुमत होकर चित्रमाथ विद्याधर सहित विमान मे बैठकर अपने मण्डल की घोर चल पडा । शिविर मे पहुँच कर जब मुझे ज्ञात हुआ कि तुम मेरे लिए जगलों में खोज रहे हो तब मैं भी चित्रमा को लौटाने के लिए अपनी असमर्थता प्रदर्शित करके तुम्हें खोजने के लिए निकल पड़ा। एक बार मार्ग मे गन्धर्वक मिला। उसने मेरे वियोग में समाप्त तिलक मंजरी की करुणाभरी अवस्था का वर्णन किया - "जब चित्रमा ने पहुंच कर मित्र कोने के लिए आपके प्रयत्न को तिलकमंजरी को सुनाया तब तिलकमंजरी की आज्ञा से अनेक विद्याधर सैनिकों के द्वारा आपको बूढ़ता हुआ मैं यहाँ पहुँचा हूँ । प्राप चलिए धौर मठ में ठहरिए । प्रापके मित्र की खोज विद्याधर करेंगे।" मैं तिलकमंजरी के माह से मठ में जा पहुंचा । वहाँ रहते हुए एक बार पिता जी ने मेरे पास चन्द्रात दिव्यहार और बालारुण दिव्य मंठी भेजी। मैने तिलकमजरी देवी के लिए हार धौर मलयसुन्दरी के लिए बालारुण मंगुलीयक भेंट स्वरूप भेज दिए। इसके -

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