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८०, वर्ष २३ कि० २
पर से पहुंचा और उसकी हत्या करने के उद्देश्य से उसे एक भारी पत्थर के नीचे दबा कर चला गया ।
उधर चन्द्रप्रभा का जीव समय पाकर मेघकूट नगर के विद्यावर राजा काल संबर की पत्नि कनकमाला बनी । ये दोनों उसी ओर से जा रहे ये धौर उस नन्हे बच्चे को पत्थर के नीचे दबा देख कर उन्होंने उसे निकाला मौर बच्चे को विल्कुल स्वस्थ पाकर वे अचम्भित हुए । उन्हें ऐसे वीर बालक को पुत्र मानकर बड़ी प्रसन्नता हुई, यही नन्हा बच्चा लोक मे प्रद्युम्न कुमार के नाम से प्रसिद्ध हुमा । उसकी शिक्षा-दीक्षा उत्तम हुई। वह बालकपन में ही अपने पराक्रम दिखलाने लगा। उसके पराक्रम की कहानियाँ मेघकूट नगर के घर-घर में कही जाने लगी । प्रद्य ुम्न कुमार ने अपने नए पिता राजा कालसवर के लिए बड़ी-बड़ी लडाइया लड़ी। अपने अन्य ज्येष्ठ पुत्रो के रहते हुए भी कालसवर ने उसे युवराज घोषित कर दिया । जिससे उसके सभी भाई उसके दुश्मन हो गए ।
उन्होने उसकी हत्या करने के कई प्रायोजन किए, पर सफल न हो सके। उसके सौन्दर्य की कीर्ति तो अद्भुत रूप से फैलती गई । जब उसके विवाह की बात हुई तो उसकी नई मा को यह बात पसन्द नहीं हुई। उसके मन मे विचित्र अन्तर्द्वद चल रहा था। अपनी अवेडावस्था मे उसकी वासना उम्र हो उठी थी और उसकी परेशानी की सीमा न थी उसे यह भी अनुभव हुआ कि उसकी वासना पुत्र प्रद्य ुम्न कुमार की ओर ही है। जब वह अपने को सभाल न सकी तो धाखिर को उसने प्रद्युम्न कुमार को कपटपूर्ण वार्ता करते हुए बतलाया कि वह उनका वास्तविक पुत्र नही है, और वह किस प्रकार उनका पुत्र वना । सारी बाते जान कर प्रद्य ुम्न कुमार के दुख का ठिकाना न रहा। तभी उसके पूर्व भव की प्रेयसी उसके वर्तमान जीवन की नई मां कनकमाला ने उससे काम वासना की पूर्ति का प्रस्ताव किया तो वह प्रचभित रह गया । अत्यन्त लज्जा और क्रोधपूर्वक ग्राखिर वह उसे धिक्कारता हुआ वहा उसे उठ कर चला गया ।
अपना अपमान हुआ देख कर कनकमाला बहुत क्रोषित हुई और उसने अपने तन बदन को नोच डाला । कपटपूर्वक उसने चीखना चिल्लाना शुरू किया एवं अपने
प्रनेकान्त
पति राजा कालसवर से उसने प्रद्युम्न कुमान के दुष्चरित्र होने का महादोष लगाया ।
माखिर पिता मे युद्ध हुआ पौर पुत्र विजयी हुआ । परन्तु वह् दुःखी था प्रत्यन्त दुःखी था; क्योंकि उसका कोई माता-पिता नही था । श्रौर न संसार में उसका कोई भी अब अपना था ।
तभी नारद मुनि से भेट हुई और वह यह जानकर प्रसन्नता से विभोर हो उठा कि कृष्ण नारायण उसके वास्तविक पिता और रुक्मणि उसकी माता है ।
वह उसी समय चाकाश मार्ग से शीघ्र ही नारदमुनि के साथ द्वारिका पुरी जा पहुँचा । अपने को प्रगट करने के पूर्व उसने कृष्ण नारायण की गविता दूसरी पत्नी सत्यभामा एवं उसके पुत्र के गर्भ को चूर किया एव अपने पराकम दिखलाकर कृष्ण, बलदेव, आदि को भी परास्त किया। तदुपरान्त बड़े नाटकीय ढंग से नारदमुनि ने पिता-पुत्र का मिलाप कराया और प्रद्युम्न कुमार अपने सारे कुटुम्ब वालों से गले लग कर मिला ।
माता रुक्मणि का क्या कहना। उसकी खुशी का क्या ठिकाना | उसकी कोख के पुत्र के लापता होने के उपरान्त उसकी मौत सत्यभामा उसे बराबर लज्जित और अपमानित करती रहती थी। इससे उसका जीवन दुःखमय हो गया था। कृष्ण नारायणण का तो उस पर अगाध प्रेम था और उनके देवर अरिष्टनेमि भी उसका बडा आदर करते थे फिर भी उसका जीवन अत्यन्त विरागी हो गया था ।
अब इतने वर्षों के बाद अपने लापता पुत्र को फिर पाकर उसने अपने महल मे बड़ी-बड़ी खुशिया मनाई ।
अरिष्टनेमि की ओर प्रद्य ुम्न कुमार अत्यन्त आकर्षित हुए और उनकी उदात्त भावनाओं और विचारों से भी बहुत प्रभावित हुए । प्रद्य ुम्न कुमार शूर वीर थे और वाल्यकाल से अबतक युद्ध और योद्धाम्रो के बीच ही उनका समय निकला था । अरिष्टनेमि के दर्शन, ज्ञान और चामित्र की बाते उसके मन मे सहज प्रतिष्ठित हो गई। सच्चरित्रता उनके प्रत्येक कार्य मे दीखने लग गई । समय पाकर उसका विवाह कौरव नरेश दुर्योधन की पुत्री उदधिकुमारी से हुआ ।