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पदर्शन समुच्चय का नया संस्करण
पं० दलसुख मालवणिया
डायरेक्टर ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद
प्रास्ताविक
षड्दर्शनसमुच्चय मूल' और गुणरत्नकृत टीकाका अनुयाद श्री पं० महेन्द्रकुमारजी ने ता० २५६-४० बार बजे पूरा किया था, ऐसी सूचना उनकी पांदुलिपि से मिलती है। धौर टिप्पण लिखने वाला कार्य उन्होंने ई० १९५९ में । अपनी मृत्यु ( ई० १६५६ जून) के कुछ मास पूर्व पूर्ण किया ऐसा डॉ० गोकुलचन्द्रजी की सूचना से प्रतीत होता है। टिप्पणी के लिखने मे डॉ० गोकुलचन्द्र जैन ने सहायता की थी ऐसा भी उनसे मालूम मालूम हुआ है। धनुवाद करके उन्होंने छोड़ रखा था और प्रकाशक की तलाश थी यह तो मैं जानता हूँ किन्तु वेद इस बात का है कि उनके जीवनकाल मे इस ग्रंथ को वे मुद्रित रूप से देख नहीं सके। और इस कार्य को मित्रकृत्य के रूप में करने में दुखमिश्रित सन्तोष का अनुभव में कर रहा हूँ ।
उनकी जो सामग्री मुझे मिली उसे ठीक करके, यत्र
तत्र संशोधित करके मैने प्रेस योग्य बना दी थी। कुछ पृष्ठों के प्रूफ भी मैने देखे और पूरे ग्रंथ के प्रूफ मुद्रणकार्य शीघ्र हो इस दृष्टि से मेरे पास भेजे नहीं गये । अानन्द इस बात का है कि मेरे परम मित्र का यह कार्य पूरा हो गया ।
यह भी आनन्द का विषय है कि इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है। ज्ञानपीठ के आरम्भ काल से ही उनका सम्बन्ध ज्ञानपीठ से एक या दूसरे रूप में रहा है धकलक के कई ग्रन्थों का उद्धार १० महेन्द्रकुमार १. 'षड्दर्शन समुच्चय' गुजराती अनुवादक : श्री चन्द्रसिंह मूरि प्रकाशक-जैन तत्वादर्श सभा, धमदाबाद, ई० १८६२ भ्रष्टकप्रकरण के साथ, प्रकाशक : क्षेमचन्द्रात्मजो नारायणः सुरत, ई० १६१८; हरिभद्रसूरिभ्रन्यमाला मे प्र० जैन धर्मप्रसारक सभा, भावनगर, विक्रम स० १६६४ ( ई० १९०७) ।
जीने किया और ज्ञानपीठ ने उससे दोनों की प्रतिष्ठा बढ़ी। तीय दर्शनों के ग्रन्थ प्रायः नही टिप्पणी देकर दर्शन ग्रंथों का जी ने शुरू किया था उसी ।
उनका प्रकाशन कियाइतने उत्तम रूप से भारमुद्रित होते । तुलनात्मक संपादन पूज्य प० सुखलाल पद्धति का अनुसरण करके पं० महेन्द्रकुमार जी ने जिस उत्तम रीति से उन ग्रंथों का सपादन किया और ज्ञानपीठ ने उन्हें सुन्दर रूप में छापा यह तो भारतीय दर्शन ग्रन्थ के प्रकाशन के इतिहास मे सुवर्ण पृष्ठ है उन ग्रंथों के जरिये भारतीय दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन को प्रगति मिली है - यह निःसमय है। पं० महेन्द्रकुमार जो जीवित होते तो प्रस्तुत पद् दर्शनसमुच्चय की प्रस्तावना कैसी लिखते यह नहीं कहा जा सकता किन्तु यहा जो लिखा जा रहा है उससे तो बढ़कर होनी इसमें सन्देह नहीं है।
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षड्दर्शनसमुच्चय और उसकी वृत्ति के संशोधन मे उपयुक्त हस्तप्रतियों के विषय मे मेरे समक्ष प० महेन्द्रकुमारजी के द्वारा लिखित कोई सामग्री नही आयी श्रतएव यह कहना कठिन है कि उन्होंने तत्तत् संज्ञाओं के द्वारा निर्दिष्ट कौन-सी प्रतियो का उपयोग किया है। किन्तु इतना तो निश्चित है कि उन्होंने अच्छी हस्त प्रतियो का उपयोग प्रस्तुत ग्रंथ के संशोधन मे किया है और उसे शुद्ध करने का पूरा प्रयत्न किया है।
उनके द्वारा सम्पादित अन्य ग्रन्थों की तरह इसमे भी उन्होंने महत्वपूर्ण तुलनात्मक टिप्पण अन्य ग्रन्थों से उड़त किये है संकेत सूची के धाधारपर से एक ल तैयार की गयी है जिससे वाचक को पता लगेगा कि प्रस्तुत ग्रंथ के संशोधन के लिए उन्होंने कितना परिश्रम किया है। उन्होने विविध ग्रंथों के कौन से संस्करणों का टिप्पणी मे उपयोग किया है - यह भी पता लगाकर निर्दिष्ट किया गया है।