Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 216
________________ धनञ्जयकृत हिसम्मान महाकाव्य २९७ कक्ष बताने के अतिरिक्त अन्य कोई परिचयात्मक जान- मार्तण्ड (निर्णयसागर संस्करण, बम्बई १९१२, पृष्ठ ११६, कारी नहीं दी। द्विसन्धान सर्ग १८, श्लोक १४६ जिसमे पक्ति एक बम्बई १९४१ पृष्ठ ४०२) मे द्विसन्धान का प्रत्यधिक श्लेष है, के माधार पर निम्नलिखित परिचया- उल्लेख किया है। स्मक विवरण निकाला है। धनजय वासुदेव तथा श्रीदेवी ननु व्याकरणाद्यभ्यासाल्लौकिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्ती के पुत्र थे। उनके गुरु का नाम दशरथ था। वे दशरूपक तदविशिष्टवैदिकपदवाक्यार्थप्रतिपत्तिरपि प्रसिद्धरश्रुतके लेखक से भिन्न हैं। काव्यादिवत् । तन्न प्रतिपत्तावतीन्द्रियार्थदशिना किंचित्प्रयोधनंजय तथा उनकी कृतियों के विषय में सन्दर्भ जनमित्यप्यसारम् । लौकिकवैदिकपदानामेकत्वेप्यनेकार्थत्व. पति मा प्राप्त व्यवस्थितेरन्यपरिहारेण व्याचिख्यासितार्थस्य नियमयितुमहुई है और उनकी कविता को यह वैशिष्ट्य प्राप्त हुमा शक्तेः। न च प्रकरणादिभ्यस्तन्नियमस्तेषामप्यनेकप्रवृत्तिहै कि वह द्विसन्धान कवि कहलाने लगे। द्विसन्धान शब्द द्विसन्धानादिवत् । या नाम दण्डि (७वी शताब्दी अनुमानित) जितना प्राचीन वादिराज ने १०२५ ई० मे लिखे अपने पार्श्वनाथतो प्रतीत होता ही है, तथा भोज के निम्नलिखित उद्धरण चरित (बन्बई, १९२६) मे धनंजय तथा एकसे अधिक स्पष्ट बताते है कि धनंजय की तरह दण्डि ने भी द्विसन्धान सन्धान में उनकी प्रवीणता का उल्लेख किया है (१२६)। प्रबन्ध रचा था, जो यद्यपि हमे उपलब्ध नही हुमा । अनेकभेवसंधाना खनम्तो हृदये मुहः।। सम्भवतया काव्यादर्श और दशकुमारचरित के अतिरिक्त बाणा धनंजयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रिया कथम् ॥ यह उनका तीसरा ग्रन्थ था। जैसा कि के० बी० पाठक ने स्पष्ट किया है, दुर्गसिंह जैसा कि प्रार० जी० भण्डारकर (नीचे देखें ) ने (१०२५ ई० अनुमानित) ने अपने कन्नड़ पचतन्त्र (मैसूर स्पष्ट किया है कि वर्धमान (११४१-११४६ ई.) ने अपने १८९८) मे धनंजय के राघवपाण्डवीय का इन शब्दों में गुणरत्नमहोदधि पृष्ठ ४३५, ४०६ तथा ६७ एगलिंग एडी- उल्लेख किया हैशन मे धनंजय कृत द्विसन्धान के पद्य ४१६, ६।५१ तथा अनुपमकविवजं जी१८१२२ उद्धृत किए है। येने राघवपाण्डवीय पेलदु यशोभोज (११वी शती ईसवी का मध्य) के अनुसार वनिताषीश्वरनावं द्विसन्धान उभयालकार के कारण होता है। यह तीन धनंजय वाग्वधूप्रियं केवलने ॥६॥ प्रकार का है-वाक्य, प्रकरण तथा प्रबन्ध । प्रथम वाक्य- डॉक्टर बी. एस. कुलकर्णी, घारवाड़, ने सूचित गत इलेष है, द्वितीय अनेकार्थक स्थिति है तथा तीसरा किया है कि पारा स्थित पचतन्त्र की ताडपत्रीय प्रति राघवपाण्डवीय की तरह पूरा काव्य दो कथानों को कहने मे पूर्ववर्ती कवियो का उल्लेख करने वाले ये सब पद्य वाला है। भोज ने यहाँ एक महत्त्वपूर्ण सूचना दी है कि नहीं है। दण्डि ने रामायण तथा भारत की कथा पर द्विसन्धान काश्य विद्वानों मे इस विषय मे मतभेद है कि एक ही नागकी रचना की थी। ___ वर्मा हुए अथवा विभिन्न समयो मे दो नागवर्मा (ECO __ "तृतीयस्य यथा दण्डिनो धनंजयस्य वा द्विसन्धान तथा ११४५ ई० अनुमानित)। उनके बताये जाने वाले प्रबन्धौ रामायणमहाभारताविनबध्नाति ।" जिल्द २, पृष्ठ इस या उस ग्रन्थों के नाम से (कर्नाटक कविचरित, ४४४ (वी० राघवन्, भोजकृत-शृगारप्रकाश, पृ० ४०६, बंगलौर, १९६१, पृ० ५३, १५४ इ०) कन्नड़ में छन्दमद्रास १९६३) हमारे लिए सर्वाधिक रुचिकर यह है कि शास्त्र पर लिखित उनके छन्दोम्बुधि ग्रंथ मे निम्नलिखित भोज ने धनजय और उनके द्विसन्धान का उल्लेख किया पद्य मिलते हैंहै । साथ-साथ दण्डि के द्विसन्धानप्रबन्ध का उल्लेख है। जितवाणं हरियंतधःकृतमयूरं तारकारातियंततिमा, प्रभाचन्द्र (११वीं शती ईसवी) ने अपने प्रमेयकमल- शिशिरांस्पदंते सुरपप्रोच्चकोटबं

Loading...

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286