Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 214
________________ धनजयकृत द्विसन्धान महाकाव्य १९५ इसके प्रत्येक श्लोक से सात अर्थ निकलते है पांच तीर्थ- उन्होंने खुलकर प्रशंसा की (१.१३)। उन्होंने उनकी करों के तथा राम और कृष्ण विषयक । यह जैन विविध तुलना धारा के मुंज (९७३-६५ ई.) से की है। उनका साहित्य शास्त्रमाला ३, बनारस १९१७ में प्रकाशित है। समय ईसा की बारहवीं शती का अन्तिम चरण माना जा २-कवि शान्तिराज कृत स्वोपज्ञ टीका सहित पंचसधान सकता है। (५) हरदत्त जिनका समय निश्चित नहीं है, काव्य उपलब्ध है । जैन मठ कारकल (सा. क.) मे ने राघव-नैषधीय की इस प्रकार की पद्य रचना की है कि इसकी दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध बतायी जाती है । अब प्रत्येक पद्य के दो अर्थ हैं-एक राम से सम्बन्धित, दूसरा तक यह प्रकाशित नहीं हुआ है (देखें, कन्नड प्रान्तीय नल से सम्बन्धित । इस प्रकार की कुछ और भी रचनाएँ ताडपत्रीय ग्रन्थ सूची, बनारस १९४८, पृष्ठ २६१)। है। (६) वेंकटाध्वरिन् कृत यादवराघवीय राम की कथा ३-चिदम्बर कृत राघव-पाण्डवीय-यादवीय (विन्ट रनित्ज कहती है, किन्तु उलटा कहने पर कृष्ण कथा कहती है। हि० इ० लि. भाग ३, पाई, पृष्ठ ८३) त्रिसन्धान काव्य (७) पार्वती रुक्मिणीय मे दो विवाहों की कहानी हैहै, प्रत्येक पद्य से तीन अर्थ निकलते है-एक रामायण एक शिव और पार्वती की तथा दूसरी कृष्ण और रुक्मिणी से सम्बन्धित, दूसरा महाभारत तथा तीसरा भागवतपुराण की (विटरनित्ज, हि० ई.लिभाग ३, प्राई, पृ०८३)। से सम्बन्धित । धनंजय कृत द्विसन्धान द्विसन्धान की विशेष लोकप्रियता १-पाण्डुलिपियाँ तथा टीकाएँ-धनंजयकृत द्विद्विसन्धान पद्धति अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित है और सन्धानम् (द्विसं०) द्विसन्धानकाव्य अथवा राघवपाण्डवीय उसके कुछ नमूने हमारे समक्ष है। (१) नेमिनाथचरित (रा. पा०) यदि उपलब्ध सर्वाधिक प्राचीन द्विसन्धान न एक साथ ऋषभ और नेमि जिन की जीवनी को व्यक्त भी माना जाए तो भी प्राचीनों में से एक अवश्य है। करने वाला एक सस्कृत द्विमन्धानकाव्य है। धार नरेश धनजय के समय तक यह (द्वि सन्धान) नाम पर्याप्त प्रचभोज के समय १०३३ में द्रोणाचार्य के शिष्य सूराचार्य ने लित हो चुका होगा। इसकी पाण्डुलिपियाँ पर्याप्त मात्रा इसकी रचना की थी (देखे जि० को० पृ० २१६) । (२) मे उपलब्ध है । (जि. को० पृ० १८५, क० ता० ग्र० पृ० रामपालचरित काव्य सन्ध्याकग्नन्दि ने रचा है। इसके १२१-२) इसकी कतिपय टीकाओं का भी पता चलता है। प्रत्येक पद्य के दो अर्थ है एक नायक नाम से सम्बन्धित, १. विनयचन्द्र के प्रशिघ्य देवनन्दि के शिष्य नेमिदूसरा राज। रामपाल से सम्बन्धित, जो ग्यारहवी शताब्दी चन्द्र कृत पदकौमुदी। मे बगाल के शासक थे (विन्टरनित्ज, हि० इ० लि० भाग २ पुष्पसेन शिष्य कृत टीका। तीन, खण्ड १, पृ. ८२)। (३) नाभेय नेमिकाव्य (ईसवी ३. कवि देवर कृत टीका। वे रामघाट (परवादि बारहवी शती का प्रारम्भ अनुमानित) स्वोपज्ञ टीका युक्त धरट्टि के नाम से ख्यात) के पुत्र थे। यह उन्होंने अपने एक द्विसन्धान काव्य है। इसके लेखक मुनि चन्द्रसूरि के पाश्रयदाता अरलु श्रेष्ठिन् के लिए लिखी थी। कहा जाता प्रशिष्य तथा अजितदेव मूरि के शिष्य हेमचन्द्र सूरि है। है कि इस टीका का नाम राघवपाण्डवीयपरीक्षा है। कवि श्रीपाल ने, जो सिद्धराज तथा कुमारपाल राजापो के अरलु श्रेष्ठिन् कीर्ति कर्नाटक के एक बड़े व्यापारी तथा समकालीन थे, इस रचना को संशोधित किया था। इसमे जैन धर्म के प्रति तीव्र प्रास्थावान् तथा जया के पुत्र थे। ऋषभ तथा नेमि जिन के चरित्र का वर्णन है। (४) सूरि उनमें नैसर्गिक अच्छे गुण थे तथा वे कवियों के प्राश्रयया पडित नाम से ज्ञान कविराज, जिनका सही नाम दाता (संरक्षक) थे । देवर ने प्रारम्भ में अमरकीति, सिंहसम्भवतया माधव भट्ट था, कृत राघवपाण्डवीय एक द्वि- नन्दि, धर्मभूषण, श्री वर्धदेव तथा भट्टारक मुनि को नमसन्थान काव्य है। यह एक साथ रामायण तथा महाभारत स्कार किया है (जि. को० पृ० १८५ तथा क० ता००० की कथा कहता है। जयन्तीपुर के कदम्बवंशीय नरेश काम- पृ० १३१.२) । देवर की टीका की एक प्रति ताडपत्र पर देव (११८३-६७ ई०) उनके प्राश्रयदाता थे, जिनकी कन्नड़ लिपि मे जैन सिद्धान्त भवन, पारा में है, (देखें,

Loading...

Page Navigation
1 ... 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286