Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 217
________________ १९८, बर्ष २३ कि० ५-६ अनेकान्त ते तिरोभूतगुणाढ्यनब्जवनदंताविर्भडिभारतवंतात- नेमिका स्मरण किया है, उसके बाद सरस्वती की प्रशंसा धनंजयकविभबं वाग्गुफदोलनाकिगं ॥ की गयी है। दिगम्बर जैन लेखकों की यह सामान्य यहाँ पूर्व कवियो मे धनंजय का उल्लेख किया गया प्रवृत्ति है कि कथा राजा श्रेणिक के लिए गौतम द्वारा है। भार० नरसिंहाचार्य का मत है कि यह द्विसन्धान कही गयी बतायी जाती है। लेखक ने घटनाग्रो के वर्णन के रचयिता धनंजय का उल्लेख है, किन्तु एक वकट की अपेक्षा विशिष्ट वर्णनो पर अधिक बल दिया है। सुख्खय्या का मत है कि दशरूपक कार धनजय का उल्लेख अधिकाश श्लोक अलंकारयुक्त है और टीकाकार ने उनको अभिप्रेत । पूरी तरह प्रकित किया है । अन्तिम अध्याय (विशेष रूप जल्हण (१२५७ ई० अनुमानित) ने अपनी मूक्तिः से श्लोक संख्या ४३ से आगे) में लेखक ने अनेक शब्दामुक्तावली में राजशेखर (१०० ई० अनुमानित) के मुंह लंकारों का चित्रांकन किया है, जैसा कि भारवि, माघ से धनंजय के विषय में निम्नलिखित पद्य कहा है (गा० तथा अन्य कवियो मे समान रूपसे मिलता है, श्लोक संख्या प्रो० सी० स०, ८२, बडौदा १९३८, पृष्ठ ४६) १४३ सर्वगत प्रत्यागत का उदाहरण है यह मानकर कि दिसन्धा। निपुणतां स तां चक्रे धनंजय । सों के अन्त मे दिए हुए पुष्पिकावाक्य (१, २, १६वे यया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनं जयः ।। सर्गों में उपलब्ध नहीं है) लेखकके स्वय के है, यह स्पष्ट है यह लेखक के नाम का धन तथा जय रूप पृथक्करण कि उन्होने अपना नाम धन जय, या धनजय कवि, अथवा ठीक वैसा ही है जैसा स्वयं धनजय ने अपने काव्य म द्विसन्धान-कवि दिया है तथा अपनी कृति को द्विसन्धान किया है। काव्य अथवा अपर नाम राधवपाण्डवीय महाकाव्य कहा जैसा कि डॉ. हीरालाल जैन ने षड्खण्डागम धवला है । प्रत्येक सर्ग के अन्त मे अन्तिम पद्य मे श्लेष से अपना टीका सहित, जिल्द १, अमरावती १९३८, प्रस्तावना सावना नाम धनजय दिया है जैसा कि विषापहार स्तोत्र मे । पृ०६२, वीरसेन (वही जिल्द ६, प०१४) ने इति इसका अनुकरण राजशेखर के नाम से अभिहित पद्य मे को व्याख्या मे उपयोगी एक पद्य उद्धृत किथा है। जल्हण ने कि यह ठीक वैसा ही है जैसा धनंजयकृत नाममाला का यदि द्विसन्धान नाम रचना पद्धति को व्यक्त करता ३६वां पद्य। है, जैसे प्रत्येक श्लोक के दो अर्थ या व्याख्या की जा सकती है, तो दूसरा नाम राघवपाण्डवीय काव्य की धनंजय का समय विषयवस्तु का प्राभास देता है कि यह एक साथ राम उपयुक्त संदर्भ हमे धनंजय का समय निर्धारित करने नथा पाण्डवों की कथा कहता है। इन दोनों से सम्बद्ध में मदद करते है । अकलंक (७-८वी शती ईसवी) तथा कथा-परम्परा भारतीय सास्कृतिक विरासत का ऐसा वीरसेन जिन्होंने ८१६ ईसवी मे धवला टीका पूर्ण की अपरिहार्य प्रग है कि कोई भी कवि जो एक साथ दो थी के मध्य मे हए । धनंजय का समय ८०० ईसवी अनु- विषय लेना चाहता है, उस ओर अभिमुख होता है विशेमानित निर्धारित किया जा सकता है। किसी भी प्रकार पतया इसलिए कि उन दोनो का वर्णन करने वाले तथा वह भोज (११वीं शती का मध्य) जिन्होंने स्पष्ट रूप से वैकल्पिक चुनाव प्रस्तुतिकरण के लिए बड़ी संख्या में उनका तथा उनके द्विसन्धान का उल्लेख किया है, से बाद विस्तृत विवरण प्रदान करने वाले महाकाव्य उपलब्ध है। के नहीं हो सकते । राघवपाण्डवीय नाम पर्याप्त प्रचलित है। धनंजय के द्विसन्धानकाव्य अतिरिक्त कविराज, श्रुतकीर्ति प्रादि कवियो ने इसे चुना धनजयकृत द्विधान मे १८ सर्ग है तथा कुल श्लोक है तथा इसी तरह के शीर्षक राघव-यादवीय, राघवसंख्या ११०५ जो कि विभिन्न छन्दो मे लिखे गये है पाण्डव-यादवीय उपलब्ध है। (सूची अन्त मे) । प्रारम्भिक मंगल पद्य मे मुनिसुव्रत या धनंजय के काव्य का प्रथम शीर्षक द्विसन्धान है मौर

Loading...

Page Navigation
1 ... 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286