Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 213
________________ धनञ्जयकृत द्विसन्धान महाकाव्य डा. प्रा० ने० उपाध्ये संस्कृत भाषा का अर्थ-सामर्थ्य में कविराज ने ठीक ही कहा हैसस्कृत भाषा मे ऐसी उर्वरा सामर्थ्य है कि उसमे प्रायः प्रकरणक्येन विशेषण-विशेष्ययोः । एक उक्ति एक से अधिक अर्थों को व्यक्त करती है । सर्व- परिवृत्त्या क्वचित्तदुपमानोपमानयो॥ प्रथम एक ही शब्द, चाहे वह क्रिया हो या सज्ञा, विभिन्न क्वचित्पश्च नानाः पवचिद्वक्रोक्तिभङ्गिभिः । अर्थ रखता है जिसका मही निश्चय सन्दर्भ के अनुसार विधास्यते मया काव्यं श्रीरामायणभारतम् ॥ किया जा सकता है। इस प्रकार के पद सस्कृत कोशो मे, प्राप्त विवरण से पता चलता है कि जब अकबर जिन्हे अनेकार्थ या नानार्थ कोश कहा जाता है संगृहीत १५६२ ई० मे कश्मीर जाते हुए लाहौर रुके तो उनके हैं। दूसरे एक दीर्घ समस्त पद प्रक्षरो के विभिन्न प्रकार प्रामन्त्रण पर जिनचन्द्र सूरि उनकी विद्वत्सभा मे गये । से वर्गीकृत वियोजित होने पर भिन्न शब्दो और भिन्न वहां उनके शिष्य ममयसुन्दर ने उनके द्वारा बनायी गयो अर्थों को प्रकट करते है। तीसरे, एक-एक सयुक्त पद की एक कृति (पष्टलक्षार्थी ग्रन्थ ) को बादशाह के सामने विभिन्न प्रकार से व्याख्या की जा सकती है और संयो- पढा । यह अष्टलक्षी थी। उन्होने बादशाह को स्पष्ट जित शब्दो के सम्बन्ध के अनुसार उमका अर्थ बदल किया कि इसमें तीन साधारण सस्कृत शब्दों का एक जाता है। वाक्य है-'राजानो ददते सौख्यम्' जिसकी व्याख्या पाठ __ संस्कृत कवियो के निर्माण मे यह अनिवार्य उपस्करण लाख प्रकार स की जा सकती है। यह कृति प्राप्य है तथा था कि उन्हे शब्दकोश तथा व्याकरण के मूत्र कण्ठस्थ मुद्रित और प्रकाशित हो चुकी है। (देखे भानुचन्द्रग्ति , होने चाहिए। इस प्रकार से दक्ष कवि (विदग्ध कवि) प्रस्तावना, पृष्ठ १३, सम्पा० एम० डी० देमाई, सिन्धी सस्कृत की इस प्रकृति का लाभ सहज ही ले सकता था। जैन सीरीज, सख्या १५, बम्बई १६४१) । सौ अर्थ देने यह प्रवृत्ति उतनी ही पुरानी है जितना सस्कृत का उप- वाले पद्य, जिन्हें शतार्थी कहा जाता है, के उदाहरण उपयोग । जैसे 'इन्द्रशत्रु' इस समस्त पद में स्वरचिह्न कैसे लब्ध है, उदाहरण के रूप में मोमप्रभ चरित को लिया और क्यों सही सम्बन्ध अभिव्यक्त करते है। संस्कृत के जा सकता है (ई. १९७७-७९, एम. विन्टरनित्ज, इस पक्ष ने दोहरी अर्थवत्ता या इलेष को तथा घुमावदार हिस्टरी प्रॉव इण्डियन लिटरेचर, भाग दो पृष्ठ ५७३, कथन या वक्रोक्ति को जन्म दिया जो काव्यालंकरण माने तथा एच० डी० वेलणकर, जिनरत्नकोश, पूना १९४४, जाते थे, जब मितव्ययिता और प्रभावकारी ढंग से सुबन्धु पृष्ट ३७१)। और बाण जैसे नैसगिक प्रभावशाली कवियों द्वारा उपयोग सन्धानकाव्य किये गये। १-हेमचन्द्र (१०८६-११७२ ई०), जिनके द्याश्रय सविशेष रूप से दक्षता प्राप्त प्रतिभा तथा कतिपय काव्य सस्कृत तथा प्राकृत दोनों मे सुविदित है, ने एक कवियो के श्रमपूर्ण प्रयत्नो ने संस्कृत के इस लचीलेपन सप्तसन्धान काव्य रचा बताते है (देखे जि. को० पृष्ठ को बेहिसाब हद तक विकृत किया है जिसका परिणाम ४१६), किन्तु अभी तक यह प्रकाश मे नही पाया। इसी सधान काव्यो मे स्पष्ट संप से देखा जाता है । राघव- नाम का एक और काव्य मेघविजयगणि (१७०३ ई.) पाण्डवीय (१-३७-८, काव्यमाला, ६२, बम्बई १८९७) द्वारा लिखित है । यह नौ सों का एक सक्षिप्त काव्य है।

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