Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 203
________________ १८ वर्ष २३, कि. ४ प्रोकान्त भी अनेकवादों की चर्चा देखी जा सकती है जैसे कि प्रत्यक्ष ही उद्दिष्ट है। इसके विपरीत शास्त्रवार्तासमुच्चय में लक्षण, सत्कार्य असत्कार्य वाद आदि । जैनदष्टि से विविध दर्शनों का निराकरण करके जैनदर्शन नयचक्र के नयविषयक मत का सारांश यह है कि और अन्य दर्शो में भेद मिटाना हो तो तदर्शन मे किस अंश से किया हुअा दर्शन नय है प्रतएव वही एकमात्र प्रकार का सशोधन होना जरूरी हे यह निर्दिष्ट किया है। दर्शन नहीं हो सकता। उसका विरोधी दर्शन भी है और अर्थात जनदर्शन के साथ अन्य-प्रन्य दर्शनों का समन्वय उसको भी वस्तुदर्शन में स्थान मिलना चाहिए। उन्होने उन दर्शनों में कुछ संशोधन किया जाय तो हो सकता हैउस समय प्रचलित विविध मतो को प्रर्थात् विविध जैनेतर मोर शाग ग्राचार्य हरिभट कि मतों को ही नय माना और उन्ही के समूह को जैनदर्शन पद्धति और शास्त्रवार्ता की पद्धति मे यह मेद है कि नयया अनेकान्तवाद माना। ये ही जनेतर मत पृथक्-पृथक् चक में प्रथम एक दर्शन की स्थापना होने के बाद उसके नयाभास है और अनेकान्तवाद के चक्रमे यथास्थान सन्नि- विरोध में अन्य दर्शन खडा होता है और उसके भी विरोध हित होकर नय है। में क्रमश अन्य दर्शन - इस प्रकार तत्काल के विविध - स्पष्ट है कि ग्राचार्य उमास्वाति की नय की समझ दर्शनों का बलाबल देखकर मल्लवादी ने एक दर्शन के और प्राचा मल्ल वादी की नय की समझ मे अन्तर है। विरोध में अन्य दर्शन खडा किया है । और दर्शनचक की उमास्वाति नयों को परमतो से पृथक ही रखना चाहते है रचना की है। कोई दर्शन सर्वथा प्रबल नही और कोई वही मल्लवादी परवादों-परमतो को ही नयचक्र में स्थान दर्शन सर्वथा निर्बल नही । यह चित्र नयचक्र मे है। तब देकर अनेकान्तवाद की स्थापना का प्रयत्न करते हैं । नय- शास्त्रवार्तासमुच्चय मे अन्य सभी दर्शन निर्वल ही है और चक्र का यह प्रयत्न उन्ही तक सीमित रहा। केवल नया केवल जनदर्शन ही सयुक्तिक है-यही स्थापना है । दोनो भासों के वर्णन मे परमतों को स्थान दिलाने मे वे निमित्त ग्रन्थो में समग्रभाव से भारतीय दर्शनों का संग्रह है। नयअवश्य हुए। अकलक से लेकर अन्य सभी जैनाचार्यों ने चक्र मे गौण-मुख्य सभी सिद्धान्तो का और शास्त्रवार्ता मे नयाभास के दृष्टान्तरूप से विविध दर्शनो को स्थान दिया मूख्य मूख्य दर्शनो का और उनमे भी उनके मुख्य सिद्धान्तो है किन्तु नयो के वर्णन मे केवल जैनदृष्टि ही रखी है। का ही सग्रह है। उसे किसी अन्यदीय मत के साथ जोड़ा नहीं है। जिम रूप मे प्राचार्य हरिभद्र ने दर्शनों की छह संख्या यहाँ यह भी प्रासगिक कह देना चाहिए कि विशेषा- मान्य रखी है वह उनकी ही सूझ है। सामान्य रूप से छह वश्यक के कर्ता प्राचार्य जिनभद्र नयचक्र के इस मत से दर्शनों में छह वैदिक दर्शन ही गिने जाते है किन्तु प्राचार्य सहमत है कि विविध नयों का समूह ही जननदर्शन है हरिभद्र को छह दर्शनो में जैनदर्शन और बौद्ध दर्शन भी (गा० ७२) । किन्तु उन्होने भी नयवर्णन के प्रसंग मे नय- शामिल करना था अतएव उन्होंने १ सास्य, २ योग, ३ रूप से अन्यदीय मत का निरूपण नही किया किन्तु जैन. नैयायिक, ४ वैशेषिक, ५ पूर्वमीमांसा और ६ उत्तरमीमांसा सम्मत नयों का निरूपण किया। इस अर्थ मे वे उमा- इन छह वैदिक दर्शनों के स्थान मे छह संख्या की पूर्ति इस स्वाति का अनुसरण करते है. नयचक्र का नहीं। सारांश प्रकार की-१ बौद्ध, २ नैयायिक, ३ सांख्य, ४ जैन, ५ कि इतना तो सिद्ध हुआ कि सर्वनयों का समूह ही जैन- वैशेषिक और ६ जैमिनीय । और ये ही दर्शन हैं और दर्शन या सम्यग्दर्शन हो सकता है। यही मत सिद्धसेन ने इन्हीं में सब दर्शनों का संग्रह भी हो जाता है-ऐसा भी स्पष्ट रूप से स्वीकृत किया था। स्पष्टीकरण किया है (का० १-३) और इन छह दर्शनों षड्दर्शनसमुच्चय और शास्त्रवासिमुच्चय को प्रास्तिकवाद की सजा दी है। (का० ७५)। प्राचार्य हरिभद्र ने ये दो ग्रन्थ लिखे। उन दोनों में यह भी निर्दिष्ट है कि कुछ के मत से नैयायिक से उनकी रचना की दृष्टि भिन्न भिन्न रही है। षड्दर्शन- वैशेषिकों के मत को भिन्न माना नहीं जाता प्रतएव उनके समुच्चय मे तो छहो दर्शनी का सामान्य परिचय करा देना मतानुसार पाँच प्रास्तिक दर्शन हुए (का० ७८) और

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