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१०८, वर्ष २३ कि.३
भनेकान्त
की सी स्वतत्र कहानी-सग्रहों में हैं।
को शोभनीय ऐसा उसका काम या अभिनय भी उसमें "प्रवचन के प्रारम्भ मे, प्रवचनकार जैन साधू, कुछ होना आवश्यक है। इसका दुखद परिणाम यह होता है शब्दो या इलोको मे, अपनी धर्मदेशना का प्रसग बता कि वह जातक एक नीरस कहानी मात्र रह जाता है और देता है और फिर एक लम्बी सी मनोरजक कहानी कहने उसका मौलिक रस सब गायब हो जाता है। यही नहीं लगता है कि जिसमे अनेक रोमाचक घटनाए होती है और उसका विकास भी बहुधा मनोवैज्ञानिकता के सिद्धान्तों अनेक बार तो एक कथा मे से दूसरी कथाए निकलती या सम्भावनामो से विमुख पड़ जाता है। बुद्ध अपने जाती है । कथा के अन्त मे वह सदा ही केवली का प्रध्या- सिद्धान्तों का उपदेश सीधी प्रत्यक्ष रीति से देते है और हार याने प्रवेश कराता है कि जो उस नगर के उद्यान मे बोधिसत्व का दृष्टांत देकर यह बताते है कि कैसे किसी जहां के लोगो को कथा कही जा रही है, अकस्मात् विहार जीव को बुद्ध के धर्म-सिद्धान्तो के अनुसार जीवन यापन करते-करते आ जाते हैं, और इन केवली का धर्मोपदेश करना चाहिए। यदि चुनी हुई जन-कथा जातक रूप में सुनकर लोग पूछते है कि इतने उतार-चढ़ाव और भव- परिवर्तन की जाने की धर्म-प्रवृित्ति वाली नही है तो उसको भवान्तर जो देखे गए, वे सब किस कारण से हए? तदनुरूप बदलना ही चाहिए। बुद्ध के लिए अर्थशास्त्र याने केवली तब उन्हें पूर्व भवों की अच्छी और बुरी सब घट- राजनीति का अध्ययन करना पाप है। परन्तु अनेक उत्कृष्ट नामों का विवरण देकर उनका समाधान देकर देते है।" भारतीय कहानिया इसी शास्त्र से विकसित हुई हैं।
"इन जैन प्रवचनों का साहित्यिक रूप बौद्ध जातकों बौद्ध भिक्षुगण अपने कथा संग्रहो मे अनेक ऐसी नीति कथाएँ अंसा ही यद्यपि होता है, परन्तु वह उनसे कही अधिक यद्यपि सम्मिलित करते तो है, परन्तु अपन सिद्धान्तो के उन्नत है। जातक का प्रारम्भ एक कथा से होता है जो कि अनुसार उन्हें उन कथायो की वे बाते ही मौर इसलिए अधिकाशतः अपने में महत्वहीन ही होती है। ऐसा ऐसा उनकी अनिवार्य दृष्टियाँ भी, उन्हें बदल देना होती है और ऐसे ऐसे भिक्षु को हुना था, बस यही कथा होती है । परन्तु ऐसा करते हुए उन्हें उन कथापो को ही अनिवार्यतः नष्ट अन्त मे बुद्ध का आगमन उसमे होता है। दूसरे भिक्ष कर देना पड़ता है।" यह कोई अकस्मात् ही नही है कि उनसे वर्तमान अवस्था के विषय में प्रश्न करते है, और पंचतंत्र के अनेक संस्करणो मे बौद्घ सस्करण एक भी नहीं बुद्ध तब उन्हे उस भिक्षु के पूर्व भव की कथा कह कर है जब कि जैनों के सस्करण, जो कि पंचाख्यान या पचावर्तमान अवस्था की व्याख्या कर देते है। पूर्व भव की ख्यानक कहलाते हैं, न इस प्राचीनतम नीति-ग्रन्थ को सारे कथा ही जातक की मुख्य कथा है। पक्षान्तर मे जैन भारतवर्ष में ही लोक प्रिय नही बना दिया है अपितु इन्डोप्रवचनो मे यह कथा उसका परिणाम होती है। बोधिसत्व चायना और इन्डोनेशिया मे भी। पचाख्यान, सस्कृत का या भावी बुद्ध स्वयम् ही इसमें एक अभिनेता होते है और और अन्य देशी भाषाओं का यथार्थ मे ही इतना जन प्रिय इसलिए वह अभिनय उनके योग्य भी होना ही चाहिए। इन सब देशों में हुआ कि उसका मूलतः जैनकति होना संक्षेप में सारी कहानी उपदेशी या उन्नायक होनी भी स्वयम् जैनो द्वारा ही बिलकुल भुला दिया गया। मावश्यक है । जातक यद्यपि मनोरंजक है परन्तु बुद्धों की
"बौद्ध कथक, फिर, लोगों की चमत्कारिक, नुशंस रचना तो वे नहीं हैं। वे सारे भारत व्यापी कहानी के
है
और
और रौद्र कथाओं को तीव्र वासना का लाभ उठाने का महान् संग्रह से ही चुनी हुई हैं। इन जैन-कहानियों में से ५. लेखक के लेख जर्मन भाषा के देखो-'Dic Eraahअनेक कहानियां निष्कपट, कौतूहलक, या मनोरंजक किसी lungsliteratur der Jaina' (Geist des Osन किसी रूप में होती ही है, परन्तु प्रोपदेशिक तो वे नही tens I, 178ff) and Ein altindisches Narही होती हैं । इसीलिए बौद्ध भिक्षु जिस कहानी का प्रयोग renbuch' (Ber. d. Kgl. Sachs. Gesedschaft करते हैं उसे अपने कार्यानुसार परिवर्तन कर लेते हैं; der Wissenschaften, Ph.-h. KL.64 (1912), क्योंकि जातक उपदेशी होना ही चाहिए और बोधिसत्व Heft.-1).