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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
मुनिसुन्दरगणि के शिष्य शुभशीलगणि ने इसकी मम्कृत मूल-श्रोत, साहित्यक आधार, या अन्य कथाकोशों से टीका लिखी और उसी मे गद्य-पद्य मिश्रित कथाए कितना और कैमा सम्बन्ध है ? मैने कुछ का सरसरी भी दी कि जिनमें यहां-वहां प्राकत के उद्धरण भी है। गति मे उनकी स्थिति आदि जानने के लिए निरीक्षण वृत्ति मे सब कथाए ही कथाए है और इसीलिए इसे किया है और उसके परिणाम स्वरूप उनके कुछ तथ्य यहाँ कथाकोश का नाम भी दिया गया है। यह वि० स० देना हूँ : (१) १८८४.८७ की स. १२६६ । पत्र ४७ । १५०६ की रचना है।" शुभशील में वर्णनात्मक रचना अपूर्ण । चन्द्रप्रभ की स्तुति से यह प्रारम्भ होता है और करने की विशेष प्रवणता प्रतीत होती है। उमने अनेक इसमे संस्कृत में पारामतनय, हरिषेण, श्रीषेण, जीमूतग्रन्थों के अतिरिक्त, पचास्तिप्रबोधसम्बन्ध" भी लिखा है वाहन प्रादि-ग्रादि की कथाएं दी हुई है। (२) १८८४. जिसमे लगभग ६०० कथा, पाख्यायिका, सिद्धो की ८७ की सं. १२६७ । इसमे सम्यक्त्व-कौमुदी-कथा नाम से जीवनी, नीतिकथा, काल्पनिक कथा प्रादि-आदि है और सामान्यतया परिचित कथाए दी गई हैं । प्रारम्भ का गद्य उनमें से कुछ नन्द, सातवाहन, भर्तृहरि, भोज, कुमारपाल, कुछ दूसरी तरह का है और वह इस प्रकार का है-- हेमसूरि प्रादि प्रादि ऐतिहासिक व्यक्तियो, गजो, गोडदेशे पाडलीपुग्नगरे आर्यसुहस्तिसूरीश्वगः। त्रिषण्डग्रथकारो, प्राचीन एवं अर्वाचीन, को परिलक्षित करती भरताधिपसप्रतिगज्ञोऽग्रे धर्मदेशना चकुरेव, भो भो भव्या
आदि-पादि। इसमें सबसे अन्त की कथा है पात्रदान५. श्रुतसागरका संस्कृत कयाकोश [वतकथाकोष] दार्टान्तिक धनपति की। यद्यपि यह सस्कृन का ग्रन्थ है -इसमे बत, धार्मिक क्रियाएं और नियम जिनमे प्राकाश- परन्तु यहा वहा प्राकृत गायाए भी उसमे दी हुई है। पचमी, मुक्तासप्तमी, चन्दनषष्टि, आष्टाह्निक प्रादि-आदि (३) १८८४-८७ का स. १२६८ । इसमें प्राकृत मे कथाए अनुष्ठान व तप की कथाए है। लेखक मूलसघ, सरस्वती दी गई है और वे गध-पूजा [शभनि ग्रादि द्वाग], घपगच्छ, बलात्कार सघ[गण]का है और उसके गुरु थे विद्या- पूजा [विनयधर आदि द्वाग] आदि-आदि पर दृष्टात प नन्दी। उसने अपना समय यद्यपि नही बताया है, फिर भी है। प्रशस्ति और कुछ प्रश सस्कृत में है। यह हरिसिंघअनेक बाह्य साक्षियों द्वारा उसे १६वी सदी विक्रमी का समय गणि द्वारा मारगपुर मे रचा गया था। (४) १८८४दिया जा सकता है। इसने कुन्दकुन्द के पाहुडों पर को ८७ का स. १२६६ । प्रनि बहुत बिगड़ो और बड़ी बुरी अपनी संस्कृत वृत्ति मे भी कुछ कथाएं दी है।
तरह लिखी गई है। इसमे अमरचन्द्र [भावना विषयक ], ६. कथाकोश"-पूना के भण्डारकर प्राच्य मन्दिर विक्रमादित्य [पारमार्थिक मंत्री विषयक], धादि के कथाके सरकारी सग्रह विभाग में कुछ हस्तप्रतियाँ उपलब्ध है नक दिए है। वैतालपचवीसी भी पृ० १९ मे उद्धृत है, जिन्हे 'कथाकोश' कहा गया है। उनके रचयितामो के और अपभ्रंश एवम् प्राचीन गुजराती मे भी छोटी-छोटी विषय मे कुछ भी सूचना प्राप्त नहीं है और न वर्तमान कुछ कथाए है। इसकी समाप्ति सम्भवतया पचतत्र की स्थिति मे यही कहा जा सकता है कि इन कथाकोशो का एक पशुकथा में होती है। (५) १८८४-८६ का स.५८२ ।
इसमे सस्कृत श्लोको के बाद ही दान्तिक कथाएं दी १०. देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार माला सं. ७७ और
गई हैं। उनमे कुछ जिनप्रभसूरि, जगसिह, सातवाहन ८७, बबई से १९३२ और १९३७ मे यह प्रकाशित हो गया है।
जगडुशाह आदि-आदि के प्रबध भी हैं। (६) १८८४.८६ ११. मे पेटरसन की प्रतिवेदनाए, ३ पृ. ७१, विण्टरनिट्ज
का स. ५८३ । यह ग्रन्थ दोनों ओर से ही भुसा हुआ है। भासाइ भाग २ पृ० ५४४ मादि ।
यह सस्कृत में है और इसमे सस्कृत, प्राकृत दोनो ही प्रकार १२. प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४०६-११।।
के उद्धरण है। इसमे भी सम्यक्त्व-कौमुदी की ही कथाए १३. कई माराधना कथाकोशों का विचार प्रागे किया कदाचित् है । (७) १८६१-६५ का स. १३२४ । यह भी जाएगा।
मुसा हुआ और अपूर्ण ग्रन्थ है । इसमे प्रसन्नचन्द्र, सुलसा,