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भारत में वर्णनात्मक कथा-साहित्य
का ढाँचा अस्खलित रखते हुए, कह देते थे। परिणामतः और न भारतीय साहित्य की अन्य शाखामों में ही इतनी जैन भंडारों मे अनेक हस्तलिखित कथाकोश आज उप- बहुलता से पाई जाती है। इनमे पृष्ठ पर पृष्ठ पूर्वभवो के लब्ध है । इनमे से अनेक के लेखको का तो नाम तक वर्णन से, चित्रण से रग दिये गए है। सर्व शक्ति सम्पन्न प्रज्ञात है । बहुत ही थोड़े इस वर्ग के ग्रथो का तुलनात्मक और सजग कर्म सिद्धान्त बड़ी सूक्ष्मता से सुकृतों और सूक्ष्म परीक्षण किया गया है। कुमारपालप्रतिबोध जैसे दुष्कृतो का लेखा रखता है कि जिनके परिणाम से कोई प्रथ विशिष्ट लक्ष्य से तैयार किए गए कथा संग्रह ही तो भी त्राण नही पा सकता है। जहाँ भी अवसर मिलता है है । इन सग्रहों से कथा-विशेष स्दतत्र संकरण मे भी प्राप्त सैद्धान्तिक बारीकियों और प्रौपदेशिक पाख्यानो के साथ है । इन उपदेशी कथापो के सिवा भी कुछ ऐसी कथाए धार्मिक उपदेश प्रस्तुत कर दिए जाते है। कथामो में ही है जिनका सबन्ध व्रतो याने धार्मिक और अनुष्ठानिक कथाएँ प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति इतनी अधिक दीख पडती प्राचारो से है। व्रतो के फल का और उन व्यक्तियों का है कि सावधान पाठक ही कथा के भिन्न-भिन्न तारो का कि जिनने उनमे सफलता प्राप्त की, गौरवगान करने को ध्यान बराबर रख सकता है। दृष्टान्तिक कथाएं यहां वहाँ एक अच्छी कथा रची जा सकती है । उत्तरकाल मे इनमे दे दी जाती है और वे सामान्यतया लोक-कथानों और साहित्यिक-रग बिलकुल ही फीका पड गया था और वे पशु-पक्षियो की कथामो से ही ली जाती है। सभी प्रसंगो मात्र यात्रिक एव निरस ही रह गई और उसी रूप मे वे मे कथाकार मानव-मस्तिष्क की प्रचालना मे सूक्ष्म अन्तसग्रहो मे भी सुरक्षित हो गई है।
दैष्टि रखता हुमा प्रतीत होता है । वैराग्य की भावना उपर्युक्त सभी वर्गों के अन्थो मे सिवा कुछ अध-ऐति- सारे के सारे ग्रन्थ में प्रोत-प्रोत रहती है और प्रत्येक ही हासिकप्रबन्धो की कतिपय धाराएँ हमारा ध्यान विशेष कथा-नायक अगले जन्म में अच्छी स्थिति पाने के लिए रूप से आकर्षित करती है क्योकि वे न तो सामान्य ही है नियमत: संसार त्याग प्रायः करता ही है। (क्रमश:) .
देवगढ की जैन कला का सांस्कृतिक अध्ययन
श्री गोपीलाल अमर
परिचय
जैनकला का सास्कृतिक अध्ययन' शीघ्र प्रकाशित हो रहा दि० ६-२-७० को सागर विश्वविद्यालय ने प्रो० है तथापि, उसका सक्षिप्त परिचय विद्वज्जगत कोटेना भागचन्द्र को 'पीएच० डी०' की उपाधि से अलंकृत आवश्यक है। तीनों परीक्षकों ने इस शोधप्रबन्ध की किया। प्रो० जैन शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अत्यन्त प्रशसा की है, अत: यहा उन्ही के शब्द उद्धत सीहोर (भोपाल म०प्र०) मे संस्कृत विभाग के अध्यक्ष करता हूँ (हिन्दी अनुवाद के रूप में)। है । संस्कृत और संस्कृति में विद्वत्ता के अतिरिक्त समाज- परीक्षकों को सम्मतियां सुधारके लिए भी उनकी प्रसिद्धि है। देवगढ पर शोधप्रबन्ध (१) प्रो० कृष्णदत वाजपेजी, टैगोर प्रोफेसर एवं लिखकर डॉ. जैन ने विद्वानो को प्रबल प्रेरणा दी है कि वे अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, सस्कृति एवं पुरातत्त्व समेत शिखर, गिरनार, शत्रुजय प्रादि जैसे तीर्थों का भी विभाग तथा निर्देशक, उत्खनन एवं अन्वेषण, सागर विश्वऐसा अध्ययन करके उन्हे दुनिया भर के आकर्षण और विद्यालय : उपयोग की वस्तु बनाएं। इसीलिए, यद्यपि 'देवगढ़ की "मैंने शोधप्रबन्ध का परीक्षण किया। प्रत्याशी