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वनों में सती प्रथा
सती होने की तैयारी में थी जिसे गुरुदेव ने उपदेश द्वारा का हठ किया होगा, तो हितैषियों ने उनको पुत्र पालन बचाकर जैन साध्वी बनाई थी।"
का कर्तव्य बताकर सती होने से वजित किया होगा। इसके आगे संवतानुक्रम से ३० लेखों का वर्गीकरण दुर्भाग्य से पुत्र भी मृत्यु को प्राप्त हुमा तो मातामों को दिया है, जिसे विस्तारमय से हम यहां नहीं दे रहे है। जीवन भाररूप प्रतीत होने लगा होगा। उस निराश जिन्हें दे रहे है। सचिवन्तजन उक्त ग्रंथ में देखें। पवस्था में मातृसती की नमीन परम्परा चली होगी। ____एक बात बड़ी विचित्र जान पडी जिसका उल्लेख श्री नाहटाजी को माता-सती का एक लेख माहेश्वरी मावश्यक है; क्योंकि इसके पूर्व किसी इतिहास में पड़ने में (राजस्थान की एक वैष्णव वैश्य) जाति का भी मिला नहीं पायी थी।
है। महामहोपाध्याय पं. गौरीशकर हीराचद्र मोझा ने ___"सं० १५५७ में जेठ सुदी ७ को वैद गोत्रीय माणकदे
बीकानेर के इतिहास में सं० १४२६ माघसुदि ५ का एक ने अपने पुत्र के साथ सहमरण किया। सं० १८६६ मे
लेख दिया है (सा० रूदा के पुत्र सा० कणा की मृत्यु) जेठ सुदी १५ को सुराणागोत्रीय सवलादेवी ने अपने पुत्र
जो उन्हें कोड़ मदे सर पर मिला है। रावजोधा ने अपनी चनरूप के साथ सहमरण किया। जिस प्रकार पतिदेह के
माता कोडमदे को स्मृति मे यह ताल सं० १५१६ में साथ सहमरण में प्रणय की प्रधानता है, उसी प्रकार मातृ
बनवाया था। यह बीकानेर से १५ मील पश्चिम मे है। सती होने में पुत्र वात्सल्य की प्रधानता है।"
इस प्रकार प्रोसवाल, श्रीमाल और अग्रवाल जैनों में ऐसा नाहटाजी ने लिखा है किन्तु लेखक का अनुमान सती प्रथा प्रमाणित होती है। खोज करने से अन्य है कि पति के मृत्यु के समय उक्त महिलामों ने सहगमन जातियों के भी प्रमाण उपलब्ध हो सकते हैं। .
कथनी और करनी
मुनि कन्हैयालाल साधक! अपने अन्तस्तल में डुबकियां लगाकर स्वयं को टटोल । अपनी वाणी से अंसेतु दूसरों को सुन्दर-सुन्दर उपदेश देता है, वैसे वे उपदेश अपने जीवन में व्यवहृत होते हैं या नहीं? कहना जितना सुगम है, उसे जीवन-व्यवहार में लाना उतना ही दुर्गम है। जैसा मन में हो, वैसा बच्चन में और अंसा वचन में हो, पैसा क्रिया में; महापुरुष की यही प्रत्युत्तम कसोटी मानी जाती है।
सत्य, अहिंसा मावि धर्म को अच्छा बताने से, उनका नाम लेने से और केवल कंठान करने से प्रभोष्ट की सिद्धि नहीं हो सकती। प्रभीष्ट की उपलब्धि तभी हो सकती है, जब वह माचरण में माकेगा। वह पादप मनोदांछित फल भी दे सकता है, जब उसको व्यवहार के क्षेत्र में पल्लवित किया जाये। कोई कितनी भी अच्छी और रोग-नाशक व स्वास्थ्य-पोशक प्रौषधि का नाम लेता रहे और उसके गुणों का बखान कर केवल लेने की कामना करता रहे, उसे उसका लाभ नहीं हो सकता। रोग का उपशम या नाश तभी हो सकता है, जब वह उस प्रविधि का मासेवन करेगा।
___ऊँचे-ऊँचे प्रादों की बातें बनाते हैं, भाषणों में ऋषियों की वाणी पर बल देते हैं और मोटे रंग-रंगीले सुन्दर वर्णों में लिख कर दिवालों पर लटका भी देते हैं, जोर-जोर से उसका घोषकर परा और प्रकाश को एक कर देते हैं, परन्तु वे सब परमार्थ से शून्य होते हैं। ऐसे मनुष्य दुष्प्राप्य नहीं हैं। दुष्प्राप्य वे हैं, जो प्रावों को अपने जीवन व्यवहार में परिणत कर दूसरों को उपदेश देते हैं । उसी समय उनका कथन सार्थक बनता है। अन्तर का विवेक हो कथनी और करनी का भेद बतलाता है। विवेक को सफलता साकार बनकर अवश्य हो तेरा प्रालिंगन करेगी। कथनी और करनी को समानता ही व्यावहारिक क्षेत्र में पावर्शवाद को सच्ची कसौटी है।