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माली राम्रो
[ प्रस्तुत रचना एक रूपक खण्ड काव्य है, जिसमें प्रात्मा रूपी माली भव रूपी वृक्ष को सीचता है के उस वृक्ष की चार डालियां है जो चारों गतियों की परिचायक है। उन चारों ही डालियों पर फल लगे हुए हैं। काल माली से कहता है कि रे मानी तू इस वृक्ष को मत सींच, इसके फल ऊपरसे सुन्दर प्रतीत होते हैं, उनमें अन्दर कुछ भी सार नहीं है। यह मिथ्या बीज उगा है, मोह के कारण बंधक है, इसके फलों का स्वाद भी अच्छा नहीं है। चतुर्गति का बंध करानेवाला है । अतः हे माली, तू इसको छोड़, किन्तु माली को फल चखने की भूख थी, भ्रतः वह अपनी कमर को अच्छी तरह बाँध कर उस भवतरु पर चढ़ गया । उसने सुर डाली पर बड़ कर हंस हंस के फल खाये धन्त समय में जब माला कुम्हलाई तो वह उस समय झुर भुर कर मरा । पश्चात् वह नर डाली पर चढ़ा, श्रौर "उसके सुख दुख फलों का उपभोग किया। अन्त मे परिग्रह के वियोग में मैं में करता हुम्रा मृत्यु को प्राप्त हुआ । फिर वह तियंच डाली पर चढ़ा, वहा पर उसने सिर धुन धुन कर फल खाये, क्षणमात्र सुख के कारण सागरोपर्यंत दुःसह दुख सहे । अन्त में कुमरण किया, भोर भयावनी नरक डाली पर चढ़ा, अनन्त दुख सहे तो भी विश्राम नही मिला। इस तरह इस मालीरूपी जीव ने लोभवश चारों गतियों में भ्रमण किया, अनन्ता दुख सहे, किन्तु उनसे छूट कारा नहीं मिला। माली रूपी लोभी मधुकर चारो गतियो के फूलों में रागी रहा । उसी तरह यह जीव भी शुभाशुभ कर्मोंक पुण्य-पाप फल का अर्जन करता है, उनके सुखदुख फलों का चारों गतियों में उपभोग करता हुआ, ससार में परिभ्रमण करता है। श्री गुरु उसे बार बार समझाते है किन्तु उसके अन्तःकरण में जब तक नही लगता तबतक वह दुख का ही पात्र वना रहता है । भतएव सुगुरु उसे समझा कर कहते है कि हे श्रात्मन् ! अब तू इन दुःखों से यदि छूटना चाहता है तो सुदर्शन रूपी बीज को बो, और
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सीचने से वह धर्मकुर उत्पन्न होगा। वैराग कुदाली लेकर चारित भूमिमें कुधा लोद, और उसमें भार्षरूपी रट लगा, व्रत रूपी बैलों के कन्धों पर श्रुत रूपी जुना रखकर समता रूपों कल में अभय रूपी श्रीगण देकर उसे चला, 1 उपशम रूपी नेज लगा कर क्षमामय घटमाल लगा कर उसे सींच, दया रूपी जल काढ़ कर सीच, बीज की यत्न से रक्षा कर, संयम रूपी वाडी लगा शील की सदा रक्षा कर तथा क्रोष रूपी अग्नि से दूर रह । माया वेल पर मत चढ उत्तम क्षमादि दश धर्मों का पालन कर । तब तुझे अक्षयं सुख की प्राप्ति होगी।
इस रूपक काव्य के रचयिता कवि जिनदास हैं, इनकी कई रचनाए है । जोगिरासो भी इन्ही की रचना है । यद्यपि कविता अच्छी है, परन्तु उसमें राजस्थानी श्रीर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट झलकता है । इनका समय १७वी शताब्दी है । जिनदास नाम के कई विद्वान हुए हैं, जिनका परिचय फिर कभी कराया जायगा । - संपादक ]
जिनदासकृत माली रासो
भवन्तर सोच मालिया तर्हि तर चारि डाल चहु डाल्या फल जुन जुम्रा ते फल राखइ काल ॥१ काल कहइ सुण मालिया, सोंचि न याहि गवार । देखन ही को उहहो, भितरि नाहि सुसार ॥२ मिथ्या बीजह ऊगियो मोह-महा जड बंधि । फलम स्वाद जु जुनजुना, चहुंगति केरउ बंध ॥ ३ माली बज्यो ना रहइ, फल चाखण की भूख । बांधि सुगाड़ी गड़गदी कूदि चढ़घो भव रूख ॥४ सुर-डाली चढ़ि मालिया, हंसि हंसि जे फल खाइ । अति सुक्षूरइ कंठिरद्द जब माला कुम्हलाई ||५ पुन नर डाली सो चढ्यो, दुख-सुख फल ले भोग । अन्त समय मैं मैं करं, परिग्रह तणउ वियोग ॥६