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धर्म की कहानी : प्रपनी जवानी
बड़े लोगों की दावत जो थी। कुछ ही पत्तलों मे अब भिक्ष का दूसरा चरण भी प्रारम्भ हो गया। उसे पर्याप्त मिल गया। मां का भी ख्याल था उसे । वह सुनन्दा के साथ वह उसकी मां के पास गया। उसे समअपने चिथड़े कन्धे पर लटकती फटी झोली में थोड़ा-सा झाया-बुझाया। विश्वस्त किया। और भाई बहन का ही रख पाई थी कि अन्य भिखारी पहुंच गये। वे कहाँ सम्बन्ध स्थापित कर मां-बेटी को अपने विहार में ले इसे देख सकते थे।
प्राया । यथाशक्ति उनकी सेवा-सुश्रूषा की। वह उनकी मार खाती गई और मां के लिए भोजन
अब वे सब एक परिवार के सदस्य जैसे हो गये थे। इकट्ठा करती रही।
सारी जनता भी उन्हे ऐसा ही मानकर चलती थी।
इस बीच सुनन्दा काफी बड़ी हो गई। उसका यौवन उसी रास्ते से जैन श्रमण पाहार लेकर पा रहे थे।
निखरने लगा। ललाट पर घुघुराली लटकती लटें, सिर उनके ललाट पर तेज और मुंह पर शान्ति टपक रही
पर सुन्दर सुपुष्प कबरी बंध, कजरारे मृगनयन, उभरे थी। प्रात्मध्यान का जो फल था।
हुए वक्षस्थल पर पतली-सी गर्दन लिए शशिमुख, कृश प्राचार्य की दृष्टि लड़की पर गई प्रोर व एकायक
कटि पर बलखाती चाल, इन सब ने मिलकर उसे षोड़श ठिठक कर रह गये । शिष्य ने उनका अन्तर भाप लिया।
वर्षीया कोमलांगी नवोढा बना दिना। रूप की रानी पूछा
सुनन्दा शकुन्तला से भी दो कदम आगे हो गई। सखियों फटे-चिथड़ों मे सौन्दर्य और उज्ज्वलता को छिपाये
सहित वसत की बहारे लेती शृगार भरे उद्यानों में मस्त यह लड़की कौन है !
झूलो के साथ क्रीड़ा करती हुई जीबन के उतार-चढ़ाव अन्तर्ज्ञानी मौन रहे । वे कर्म और संसार के स्वरूप
का आनन्द लेने लगी। मैं घूम रहे थे और सुनन्दा के जीवन को उनकी पगडंडियो मे खोजने का प्रयत्न कर रहे थे।
सुनन्दा का संगीत अपने ताव पर था। लगता था शिष्य ने पुनः अपना प्रश्न दुहराया।
जैसे कोई किन्नरी नृत्यगान कर रही हो। नगर का यह प्राचार्य का अन्तर्ध्यान हो चुका था। अपने आप में
बाह्य उद्यान सगीत से सजीव हो चुका था। कुछ खोये से बोले-यह लड़की भाग्यशालिनी है । निकट इसी सगीत से आकृष्ट राजकुमार शिकार से वापिस भविष्य मे महाराजी होगी।
उद्यान की ओर पाया। जीवन उसका प्यासा था। कुछ बात थी, कह दी गई। वे जैन श्रमण थे। इससे । समय तो बाहर से ही सुनता रहा। असहनीय होने पर अधिक उन्हे मतलव भी क्या !
प्यास बुझाने उद्यान के अन्दर कदम रखे। देखते ही रूप पीछे से माते हए बौद्ध श्रमण ने यह सब सुन लिया। को लक्ष्मा पर माहित हो गया। इधर पानी पीने का तपे-तपाये जैन श्रमण की बाते असत्य नही हो सकती निवेदन उघर पानी पिलाने का माराधन । थी। यह उसने अनेक बार अनुभव करके देख लिया था। सुनन्दा कोई वर्तन लाने दौड़ती है पर राजकुमार के
स्थिति से लाभ उठाने वाले बौद्ध श्रमण ने दूरदर्शिता __इस प्राग्रह पर, कि वह हाथ से ही पी लेगा, सुनन्दा
यी। उसने बच्ची से प्रसन्नतापर्वक बात की. म. वापिस पा जाती है और घड़े से राजकुमार के बंधे हाथों लाते हुए उसकी कहानी समझी और साथ ले आया।
मे पानी उड़ेलने लगती है। राजकुमार के बंधे हाथ नीचे बौद्ध धर्म के विस्तार की कहानी बौद्ध श्रमण के पास से खुल जाते है मात्र ऊपर रूप की ओर निहारता हपा थी। उसमे क्रिश्चियन मिशनरी स्प्रिट थी।
वह अपने हाथ मुह मे लगाये है। घड़ा खाली हो गया। सुनन्दा को नहलाया-धुलाया। अपना भोजन कराया। प्यास बुझी अवश्य पर वह और अधिक वेदनादायी हो फलतः पितावत् स्नेह पाकर थोड़े ही समय में वह भिक्षु गई। मे अपनापन देखने लगी।
उद्यान की उस मनोहर भूमिका पर प्रेम का बीजा