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प्रोम प्रहम
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधामम् । मकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २३ किरण २
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वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मंवत् २४६६. वि० सं० २०२७
१९७०
नमि-जिन-स्तुति
नमेमाननमामेन मानमाननमानमामनामोन नुमोनाम नमनो ममनो मन ॥६३
-समन्तभद्राचार्यः
अर्थ-हे नमिनाथ ! पाप अपरिमेय हैं-हमारे जैसे अल्पज्ञानियो के द्वारा प्रापका वास्तविक रूप नही समझा जाता। प्राप सबके स्वामी है। प्राप का ज्ञान सब जीवो को प्रबोध करने वाला है। प्राप किसी से उसकी इच्छा के विरुद्ध नमस्कार नही कराते। चूकि प्राप वीतराग है और मोहरहित हैं, प्रतः पापको सदा नमस्कार करता हूँ-हमेशा पापका ध्यान करता हुमा पापकी स्तुति करता हूँ। प्रभो ! मेरा-मुझ शरणागत का-भी सदा ध्यान रखिए-मैं मापके समान पूर्ण ज्ञानी तथा मोह-रहित होना चाहता है ।।६३