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'प्रमाण प्रमेय कलिका' के रचयिता नरेन्द्र सेन कौन ?
हिन्दी:-उपरोक्त पद्यों में तप एवं श्रुत युक्त अपने बताया है। वादिराज तथा मल्लिषेण के बताए गए समय गुरु नरेन्द्रसेन मुनि ने अपने को (नयसेन को) संपूर्ण तर्क मे २२ वर्ष का अन्तर है। पहले तथा दूसरे नरेन्द्रसेन... शास्त्र पढ़ाकर प्रसिद्ध किया था । इतना ही नहीं, सिद्धांत मभिन्न है, एक ही व्यक्ति है। सम्पादक महोदय के में जिनसेनाचार्य, शास्त्र पांडित्य में पूज्यपाद, षट्तक में ऐसे अभिप्राय से हम सहमत है। अब हम मल्लिषेण के समन्तभद्र मुनि प्रादि से भी पारंगत तथा विद्य चक्रेश्वर समय निर्धारण के लिए आवश्यक सन् १०९४ का एक था, ऐसा नयसेन अपने गुरु के बारे मे कहते हैं।
शिलाशासन नीचे उद्धृत करते है। चालुक्य चक्रवर्ती भुवनकमल दूसरे सोमेश्वर-(१०६८- कलबुर्गी जिला के-इगलिगे-ग्राम के उध्वस्त जिन१०७६) से पूजित-गुणचन्द्र देव ने नरेन्द्रसेन मुनि को मन्दिर में यह शासन प्राप्त हुप्रा है। बड़े प्रेम से विद्य महा अभिदान दिये तथा नरेन्द्रसेन चालुक्य त्रिभुवनमल्ल छठा विक्रमादित्य......(सन् अद्वितीय वागीश है ऐसा नयसेन के उपरोक्त पद्यों में १०७६.११२६)-की रानी जाकल देवी-परल-३०.केलुभ्य शब्द चित्र हैं। नरेन्द्रसेन अनूठा जैन न्यायशास्त्रज्ञ इगुणिग-ग्राम में राज्य भार करती थी। था। सन् १०५३ ईस्वी के इस मुलगुन्द शासन मे प्रथम एक बार एक व्यापारी, ने राजा विक्रमादित्य के दरबार नयसेन का नाम पाया है । इन नयसेन के पूर्व एक बारमे एक जिनबिम्ब दिखाया। राजाने अपनी राणी जाकल पीढ़ी के वर्ष कम कर देखने से (एक पीढी=२५ वर्ष) देवी की ओर देख कर कहा-पा हा कितनी सुन्दर मूर्ति सन् १०२८ ईस्वी होता है। इसलिए यह शासन, नरेन्द्र- है; यह तेरा कुलदेव है; इसे तेरे द्वारा शासित प्रदेश की सेन वादिराज का समकालीन था, इसका प्रमाण है। राजधानी में प्रतिष्ठा करो। तदनुसार रानी ने अपनी संस्कृत में लिखित प्रमाण-प्रमेय कलिका का कर्ता यही काति चिरकाल तक स्थायी रहने योग्य जिनमन्दिर बनवा नरेन्द्रसेन था ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं पाती। कन्नड़ कर मूर्ति प्रतिष्टापन करवायी। और जैन साहित्य तथा शासन साहित्य से अपरचित "माडिसिदप्पेवि जिनगहगल नबीवरी प्रकारदि। प्रमाण-प्रमेय-कलिका के सम्पादक का अभिप्राय ऐसा हो माडिदितिदलते पडिचन्दमिलावलयपकेनलके ना-॥ गया है जो असमर्पक है।
डाडिगलंमप्प परिशोभेगे तायमनेयागे भक्तियि । प्रस्तावना में सम्पादक महोदय ने मल्लिपेण मूरी माडिसिद लिवयत्तकमनोत्तरिपतु जिनेंद्रगहमं ॥ कृत "नागकुमारचरित" की अन्तिम प्रशस्ति से उद्धृत अश,
वचन : अतु माडिसी श्रीमद्दमिलसंधवन वसत समयाँ जो दूसरे नरेन्द्रसेन से सम्बन्धित है वह यो है :
सेनगण, मगणं नायकरु मालनूरान्वय शिर शेखर तस्यानुजश्चारु चरित्र वृत्तिःप्रख्यातकोतिर्भवी पुण्यति. ।
मेनिसिद श्रीमन मल्लिपेण भट्टारकर प्रियाननरेन्द्रसेनी जितवादि सेनो विज्ञानतत्वो जितकामसूत्रः॥४॥
शिष्यरं तन्नन्वयद गुरुगनुमेनिसिद श्री मदीद्रसेन तच्छिष्यो विभुदाग्रणोर्गुणनिषिः श्रीमल्लिषेणाव्हयः ।
भट्टारकर्ग-विनयर्दिकरकमलगल मुगिदुसजातः सकलागमेषु निपुणो वाग्देवतालंकृतिः ॥१॥ मल्लिपेण के द्वारा वणित इन पद्यों में नरेन्द्रसेन को
एसे विनग समतु महमाणी जिनेश्वर विवम प्रति-1 जिनसेनके अनुज बताया है । इतना ही नही नरेन्द्रसेन को
ष्ठिसिदे निदनत्यपूर्वमेने तज्जिनगेहमनति इंदे मा.॥ उज्ज्वल चरित्रवान, तत्वज्ञ तथा काम विजयी कहा गया है।
डिसिदेनदक्के तक्क तलवृत्तियुग्मं समकट्टिद-प्रसा। मल्लिषेण ने ५वे श्लोक मे मल्लिषेण अपने को कनकसेन
दिसी मनवोलदु कयको कुषुजित मागिरे। का प्रशिप्य तथा जिनसेन का शिष्य बताने से जिनसेन
=मालपुदितिद ॥ तथा उसके सधर्मा नरेन्द्रसेन दोनों उसके गुरुजन होगे। वचन : एन्दु तन्मुनीद्ररनेगोकिसी कालं कचौंधारापूर्वकं
निपुण मत्रवादी मल्लिपेण अपने महापुराण के अन्त माडी बिट्ट ईकेयुमनी, तोंटमुमनी, केरीयुमनी, में उसका समाप्तिकाल शकवर्ष ६६६ (सन् १०४७) जिनेद्र मंदिरमुमं कंडा