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वैदेही सीता
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पर सीता की निष्ठा को वे किसी भी प्रकार डिगा नही वैदेही सीता ने उसी सरलता से उत्तर दिया जैसे कि कोई सके थे। वे जानते थे कि वैदेही सीता अपने पिता जनक बिल्कुल महत्वहीन बात हो–'बोली, मैं देह त्याग दूगी।' के विचारों से कितनी मोत-प्रोत है। हा, कभी-कभी स्वय राम और लक्षमण प्राश्चर्य से उठ खडे हए । ग लक्षमण को ऐसा माभास मिलने लगा था कि सीता के ने पूछा-मतलब?' विचारों से वे भी प्रभावित होने लगते है। वे दौड़ कर सीता ने उसी सरलता से उत्तर दिया-'मतलब गरू वशिष्ठ के पास जाने और सीता के विचारों के साफ है, मैं शरीर का त्याग कर दंगी।' प्रभाव को दूर कराने की कोशिस करते, पर गुरू वशिष्ठ राम ने महान् आश्चर्य से पूछा-'क्या प्रात्मघात केवल जनक को जली कटी सुनाते एव कहते कि सीता का करोगी?' इस घराने में पाना शुभलक्षण नहीं है। महाराज दशरथ सीता ने उत्तर दिया-'छि:छि:-क्या किसी अच्छे न जाने कैसे विश्वामित्र को चाल में फंस गए।
व्यक्ति को प्रात्मघात करना चाहिए। मैं तो धर्म पूर्वक तो लक्षमण की हिम्मत सोता से कुछ कहने को नहीं सल्लेखना ले लगी।' हुई। सीता से बहस में वे जीत सकेंगे इसमें उसे शका राम ने पूछा-सल्लेखना? थी। उन्हें याद मा गया, सीत का अनेकान्तवाद, स्याद्वाद. सीता ने कहा-'जी, इस विषय पर मापसे अपने और इन सिद्धान्तों पर सीता का गहरा अध्ययन पोर पूज्य पिता जी के विचारों को कहने का कभी अवसर ही उनकी सम्यकदृष्टि । वे जानते थे कि राम सीता के विचारों नहीं मिला। सल्लेखना धर्म पूर्वक, बिना कषाय भाव के का कितना सादर करते हैं। लक्षमण का क्रोध काफूर हो देह त्याग कर विदेह होने की एक विशेष विधि है।' गया। वे नतमस्तक हो राम के चरणों में बैठ गए।
अब लक्षमण से नहीं रहा गया। उन्होंने अपना मौन राम सम्यकदृष्टि थे। माठ प्रकार के भय उनमें नहीं तोड़ते हुए व्यंगपूर्वक कहा-'वाह ! प्रात्मघात के स्थान थे । सम्यकदृष्टि के पाठो अंग उनमें पूर्ण थे। मोर जो पर सल्लेखना शब्द का प्रयोग कर उसे धर्म की प्रोदनी से ऐसा सम्यकुदृष्टि हो उसे सत्य को जानने में विलम्ब नहीं आप ही ढक सकती हैं। दूसरे में ऐसी शक्ति है यह तो मैं होता । सत्य पालन करने में किसी प्रकार का डर नहीं नहीं जानता।' लगता।
सीता के उत्तर में हल्की फटकार की पुट थी, बोली राम ने उस स्थान की नीरवता भंग की। बोले- -'लक्षमण प्रभी तुम्हे बहुत कुछ जानना बाकी है। अभी "सीते ! क्या तुम वनवास के अपने सारे कष्टों को दिखा तुम बालक हो।' कर मुझे भी दुःखी देखना पसन्द करोगी?'
लक्षमण को निरुत्तर कर वे श्री राम की भोर मुड़ीं, निश्चल मन से सीता ने कहा-'माप जैसे व्यक्ति बोलीं-'अगर सल्लेखना की विधि में भाप को शंका हो की छाया में क्या कभी मैं दुःखी रह सकती है। और जब तो हम पिता जी के पास मिथिला चल कर निवारण मुझे ही किसी बात का कष्ट अनुभव नही होगा तो भाप करा लें।' के दुःखी होने का प्रश्न ही नही उठता।'
राम ने कहा-'इसके लिए हमारे पास समय कहाँ राम ने अन्तिम प्रश्न पूछा-'तो क्या तुम्हारा यह है ? पर क्या तुमने इस पर उनका संपूर्ण विवेचन सुना है। अन्तिम निश्चय है ?'
सीता-'जी, सुना है और समझा है।' सीता ने हल्की मुस्कान लाकर कहा--'बिना आपकी राम-'जब तुमने सुना है और समझा भी है तो आज्ञा के मैं इस विषय पर अन्तिम निश्चय कसे कर शंका करने का कोई कारण भी नही है। चलो अच्छा सकती हूँ ? हाँ, अगर आपने प्राज्ञा नहीं दी तो बाद में हा, यह अमोघ अस्त्र भी अपने काम मे पायेगा । वनमैं क्या करूँगी, उसका निश्चय कर चुकी हूँ।'
वास के रास्ते मे ही तुमसे जान लूंगा।' राम ने भृकुटि सिकोड़ते हुए पूछा-वह क्या?' सीता प्रसन्न हो उठी। राम की आज्ञा उसे मिल गई।