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२. एकत्व वितर्क अविचारी :
श्रुत के आश्रय वाले पर्यायो का अर्थ के शब्द या मन आदि
योग में परस्पर गमन विद्यमान नहीं है ऐसे अविचारी । ३. सुक्ष्म क्रिया अनिवृत्ती : निर्वाण गमन काल में मनोयोग तथा वचन योग का विरोध
और काय योग का अर्थ निरोध-ऐसे केवली का ध्यान । क्योंकि वहाँ अभी काया संबंधी सुक्ष्म उच्छवासादि है। ४. संमूच्छित क्रिया अप्रतिपाती : संपूच्छिम क्रिया भी शैलेशी करण में योग निरोध से कायीकादी क्रिया नाश हो गई हो वह कक्षा मेरु माफीक स्थिरता वह शैलेशी केवली मध्यम रीतसे पांच हस्व स्वर बोलने में जितना समय लगे उतना काल शैलेश अवस्था होती है । केवली काययोग के निरोध से सूक्ष्मक्रिया अनिवृतिरुप ध्याता है और फीर शैलेशी अवस्था में
समूच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती ध्यान करता है। १०१) शुक्ल ध्यान की ४ अनुप्रेक्षाएँ :
१. अनंत वृतितानु प्रेक्षा : अत्यंत विस्तृत अनंत जीव की भव
परंपराओ का चिंतन। २. विपरीणामानु प्रेक्षा : विविध प्रकार से ऋध्दि सुख आदि का
परिणाम होना। ३. अशुभानु प्रेक्षा : धिक्कार रुप असार संसार के अशुभत्व का
चिंतन। उदा.- रुप गर्वित युवान मरकर उसीके शरीर में कीडे के रुप में जन्मलेता है आदि.