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३१९) जो देहावस्था ध्यान को पीडा पहोंचानेवाली न हो, वह अवस्था
में ध्यान करना चाहिए, चाहे वह बैठके हो, खडे होकर हो, के
सोते हुए हो। ३२०) सूत्र-अर्थ चिंतन का जीव आलंबन लेकर उत्तम धर्मध्यान में चढ
सकता है। ३२१) ध्यान पूर्ण (पूरा) होने के बाद भी मुनि अपने आत्मा को
अनित्यादि १२ भावनाओ से भावित करे। ३२२) मोक्ष का मार्ग संवर और निर्जरा है, उस दोनो का उपाय तप है,
उसका प्रधान अंग ध्यान है, इसलिए ध्यान मोक्ष का हेतु है। ३२३) गृहस्थो के पास सोना-चांदी आदि कीमती वस्तु हीरा, मणिक,
मोती आदि रत्न होते है, साधु के पास रजोहरण यह भाव रत्न'
३२४) जिस प्रकार सुथार-करवत से लकडा काटता है, उस प्रकार
सुविहित संयमी कार्योत्सर्ग से अपने अष्टकर्मो को काटते है। ३२५) स्वाध्याय, तप, ध्यान, औषध, उपदेश, स्तुति प्रदान और संत
गुण कीर्तन में पुनरुकित दोष लगता नही है।
४१. श्री पींड नियुक्ति सूत्र ३२६) गुरु तपस्वी, ग्लान, वृध्द और नूतन दिक्षित का पहेले काप
निकालकर फीर अपने वस्त्र का काप नीकालना यह विनय है। ३२७) पहेले अल्प मेले फीर ज्यादा मेले (इस क्रम से) काप निकालना।