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३९७) जिस के कारण पाप छेद जाता है, अर्थात नाश हो जाता है उसे
'प्रायश्चित' कहेते है, या जो प्राय:चित्त को विशुध्द करे उसे
प्रायश्चित कहेते है। ३९८) प्रायश्चित से कार्योत्सर्ग (व्युत्सर्ग) रुप तप (छ: अभ्यंतर तप
को) लौकीक मतवाले अन्यतिर्थिक सम्यक रुप से जानते नहीं, या सम्यक रुप से मोक्ष प्राप्ति के लीए आचरते नहीं इसलीए इसे
जिनशासन में अभ्यंतर तप' कहा गया है। ३९९) जो श्रमण, सुख का रसिक है, शाता के लीए आकुल है
(इच्छुक) है अत्यंत निद्रा करनेवाला है तथा, बारबार हाथपैर-मुँह धोनेवाला है (मतलबकी शरीर विभूता का प्रेमी है।
उसकी सुगति दुर्लभ है। ४००) जो कोई साधु मेरे उपर अनुग्रह करे, और मुझे गोचरी का लाभ
दे, तो मैं संसार सागर तर जाऊं, ऐसा शुभभाव शुध्द गोचरी
वहोराके आया हुआ साधु वापरने से पहले करे । ४०१) साधु-साध्वी को साथ में विहार करना नही कल्पे । ४०२) अपने साथ संनिधि (खाने की वस्तु) रखनेवाला मुनि, मुनि नहीं
है, बल्कि भाव गृहस्थ ही है। ४०३) सूर्यास्त से सूर्योदय तक मुनि आहार करे तो नहीं बल्कि मन में
भी आहार की इच्छा तक नहीं करे। ४०४) गुरु की अवहेलना या गुरु वचन की विराधना करनेवाला हो वह
शायद उत्कृष्ट संयम भी पालता हो तो भी उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता है।