Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 69
________________ बडी आलोचना आएगी तो उस तप के द्वारा मेरा शरीर ही सुख जाएगा, मैं तो वैसे ही तपस्वी हूँ, मुझे आलोचना तप की क्या जरुरत है ? मेरे इतने शिष्य है, इतने भक्त है, इतनी पुण्याई है - मैं तो आलोचना करुं ही कैसे ? मैं तो ज्ञानी हूँ, मुझे पता है कौन से दोष का कितना प्रायश्चित आता है, मैं वह प्रायश्चित बिना बताये कीसी को खुद ही कर लूँगा। ऐसे अलग अलग विभिन्न कारणो से जीव आलोचना (प्रायश्चित) लेता नही है। ३९२) जीव ७ कारणो से दोष का सेवन करता है। . . १.अनजाने में २. मुढता (अज्ञानता से) ३.भय से ४. दुसरो - को प्रेरणा से ५.संकट में ६. रोग पीडा में ७. राग-द्वेष से. ४२. दशवैकालिक सूत्र ३९३) जो आत्मा में वर्ते वह अध्यात्म, और उसे चित्त में लाना वह अध्ययन। ३९४) गोचरी गया हुआ साधु, गृहस्थ के न अति नीकट और न अती - दूर खडारहे। ३९५) जो आत्मा पर उपकार करने में असमर्थ है, या अतिरिक्त है, या अजयणा है, वह अधिकरण है। ३९६) स्वभाव में विकार उत्पन्न करनेवाले द्रव्य को 'विगई' कहते है।

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