________________
४२९) मुनि सदैव बाहर से भी प्रसन्न रहे और अंदर से भी प्रसन्न रहे। ४३०) अस्थिर-चंचल चित्तवाला मुनि संयम का पालन नहीं कर सके। ४३१) कषाय रुपी अग्नि को श्रुतज्ञान, शील (ब्रह्मचर्य) और तप के जल
से बुझानी चाहिए। ४३२) धर्म उपदेश के सतत अभ्यास से मनरुपी धोडी को लगाम में रखा
जा सकता है। ४३३) अष्ट प्रवचन माता में जिनेन्द्र कथित द्वादशांगी रुप समग्र प्रवचन
अंतर्भूत है। ४३४) साधु अपनी तमाम क्रियाएँ पूर्ण उपयोग (जागृती) पूर्वक करे । ४३५) साधु पांच इन्द्रीयो के विषय और पांच प्रकार के स्वाध्याय को
छोडकर सिर्फ चलते समय गमन क्रिया में ही तन्मय बने । ४३६) प्रश्न = आरंभ और समारंभ किसे कहते है ?
उत्तर : आरंभ यानि-अत्यंत क्लेश से दुसरे के प्राणो को हरना (मार देना) और समारंभ यानि की दुसरो को पीडा-त्रास
तकलीफ होवे ऐसा वर्तन व्यवहार. ४३७) संयमी साधु गृहस्थ को नींद में से उठावे नहीं (नहीं तो, उठकर
वह गृहस्थ दिनभर जो छकाय की विराधना करेगा, इसका दोष
साधु को लगे) ४३८) गुरु के द्वारा सारणा-वायणा-चोयणा-प्रतिचोयणा द्वारा बार बार
समजाने पर भी शिष्य न सुधरे, तो ऐसे दुःशिष्य का त्याग करके गुरु अपनी आत्मिक आराधना में लीन हो जाए।