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४३. श्री उत्तराध्ययन सूत्र
४११) जो संयोग से मुक्त है, वह अणगार है । जो ममत्व से मुक्त है वो
मुनि है। ४१२) मुनि वाचाल न बने, अर्थात निरर्थक बातें करनेवाला न हो । ४१३) कठोर या कोमल अनुशासन को सुसाधु हितकर मानता है और
कुसाधु द्वेषकर। ४१४) गुरु मेरे उपर अनुग्रह कर रहे है, यह जानकर गुरु की इच्छा
मुताबिक वह आज्ञा करने से पहेले ही उचित कार्य को संपन्न करे
वह विनयी शिष्य है। ४१५) बिमारी की पीडा में पूर्व के कीये गए मेरे अशुभ कर्मो का वेदन
(छेद) हो रहा है - ऐसे संवेगवर्धक आगम वचन का चिंतन
करके समता में रहना चाहिए। ४१६) साधु, पूर्व के परिचित (गृहस्थ) की भी कांक्षा (इच्छा) तथा
सत्कार न करे। ४१७) उर्ध्व लक्ष रखनेवाला साधक कभी भी बाह्य विषयो की
आकांक्षा न करे। ४१८) मुनि, प्राय: निरस, शीतपींड (ठंडा आहार), पूराने कठोर, सार
बिना के रुक्ष बोर आदि के चूर्ण से ही गोचरी करके जीवन यापन
करे। ४१९) जो हिंसा और मूर्छा इन दोनो का त्याग करता नहीं हैं वह साधु
नही है।