Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 75
________________ ४३९) धर्म के उपर परम श्रध्दा करने से शीघ्र संवेग आता है। निर्वेद से जीव विषयो और आरंभी से विरक्त बनता है, माया रहित होकर सरल स्वभाव से आलोचना करनेवाला स्त्रीवेद और नपुसंक वेद का बंध करता नही है, स्वआत्म निंदा करने से वैराग्य की प्राप्ती होती है, पंचपरमेष्ठि को वंदन करने से उच्चगोत्र का बंध, नीच गोत्र का क्षय, और जीव आदेय नाम कर्मवाला बनता है । कार्योत्सर्ग करने से जीव पापो से हल्का बनता है । स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्मो का नाश, क्षमापना करने से मैत्रीयुक्त भाव शुध्धी और सभ्यता प्राप्त होती है । प्रतिपृच्छा रुप स्वाध्याय करने से जीव कांक्षा मोहनीय का छेद करता है । परावर्तना (पुनरावर्तन) से जीव पदानुसारीता आदि व्यंजन लब्धि प्राप्त करता है । अनुप्रेक्षा करने से जीव सात कर्मों की स्थिति को शिथिल और अल्पकालीन करता है, उसके तीव्र रसानुबंध को मंद करता है । धर्मकथा से जीव प्रवचन की प्रभावना करता है । मन को एकाग्र करने से चित्त का निरोध होता है। तप से जीव पहेले बांधे हुए कर्मों को तोडता है। वैयावच्च करने से जीव तीर्थंकरनाम कर्म का उपार्जन करता है । शांति से जीव परिषहो के उपर विजय प्राप्त करता है । सरलता से जीव अविसंवाद को प्राप्त करता है । मनोगुप्ति से जीव एकाग्रता प्राप्त करता है । वचनगुप्ति से जीव निर्विकार भाव को प्राप्त करता है । 1 ४३९अ) (विविध प्रकार के अभिग्रहो का धारण करना (गोचरी संबंध में) यह वृत्ती संक्षेप तप का प्रकार है ।) ४४० ) गुरुजन और वृध्दो की सेवा करनी, अज्ञानी लोगो के संपर्क से दूर रहेना, स्वाध्याय करना, एकांत में निवास करना, सूत्र - अर्थ का चिंतन करना तथा धैर्य (धीरज) रखना - यह दुःखो से मुक्ति का उपाय है ।

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