________________
४०५) गुरु कर्म योग से कम बुध्दि, कम श्रुतवाले या कम पुण्यवाले हो
और शिष्य अति तीव्र बुध्दिशाली, श्रुत संपन्न, विशिष्ट पुण्यवान रहे तो भी वह सदा समर्पित विनयभाव से, अहंकार कीये बिना गुरु को अनुकुल बने, ऐसी सेवा वैयावच्च करके गुरु को सदा
शाता पहुँचावे। ४०६) जो गुरु के इंगिताकार को जानकर उनकी सेवा सुश्रुषा करने के
लिए सदा जागृत रहेता है - वह मुनि पूज्य है । (माया सहित
अश्रध्दा या अबहुमान भाव से करे तो गुरु को आशातना है) ४०७) जो मुनि खुद की प्रशंसा कीसी भी स्वरुप में नहीं करता है, और
पीठ पीछे कीसी की भी निंदा नही करता है, वह मुनि पूज्य है,
धन्य है। ४०८) गृहस्थ जीवन के काम-भोगादि कहलाने वाले सुख, दुषम काल
के प्रभाव से अति तुच्छ, नि:सार, फेंक देने जैसे और अल्पकालीन है, परिणाम (फल) में दुःखदायी कटु वीपाको को देनेवाले है, यह सोचकर मुनि पुनः गृहस्थी बनने की मन से भी
इच्छान करे। ४०९) दिक्षा छोडकर गृहस्थी बनने पर, वहाँ जाकर होनेवाले दुःखो से
परेशान होकर फीर पस्तावा होवे, मैने दिक्षा क्युं छोडी ? ऐसा विचार करने तो इससे अच्छा है कि संयम जीवन के परिषहो-को सम्यक-समता से सहनकर के अपना जन्म कार्य सार्थक
करलो। ४१०) मुनि बारम्बार कार्योत्सर्ग करनेवाला रहेवे।
.