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३७६) सूर्य और गाँव को, पीठ देकर स्थंडिल बैठने से अपयश मिले । ३७७) तुटे हुए पात्रे को अंदर से नही जोडना, सीर्फ बाहर से जोडना,
अंदर से जोडने से पात्र निर्बल बनते है । ३७८) पांच भरत, पांचऐ रावत, पांच महाविदेह क्षेत्र इन पंदरा कर्मभूमि
में रहे हुए साधु में से १ भी साधु की अवज्ञा-अवहेलना - आशातना करने से सभी साधु की अवहेलना-आशातना होती
है, दोष लगता है। ३७९) साधु को उत्सर्ग से दिन मे सोने की मनाई है, लेकिन अपवाद से
लम्बे-विहार से श्रमीत हुआ हो, या वृध्द या बिमार मुनि हो तो सोना कल्पे, लेकिन गुरु की आज्ञा लेकर, प्रगट (जाहेर) जगा
को छोडकर अंदर के भाग में संथारा करे । ३८०) गोचरी वापरने से पहले साधु मांडली में यथास्थान बैठे जाए,
फीर स्वाध्याय करे, कोई असहिष्णु हो, तो उसे पहले वापरने दे
देवे । अन्यथा सब साथ में वापरे । ३८१) आहार वापरते समय पहले स्निग्ध और मधुर आहार वापरना,
ताकि उससे बुध्दी और बल बढे, पित्त का शमन होवे । और स्निग्ध आहार घी-तेल युक्त अंत तक न रखे और कवचित
परठना पडे तो विशेष संयम विराधनाचींटीया आदि से बचे। ३८२) आचार्य के गोचरी के लिए तो उत्कृष्ट गोचरी द्रव्यं (अनुकूल)
वहोराना, जो न मिले तो जो मिले वह वहोराना, लेकिन ग्लान
साधु के लिए तो नियमा (अनुकूल) प्रायोग्य द्रव्य ही वहोराना। ३८३) व्रण रहित मजबूत पात्रे रखने से कीर्ति और आरोग्य मिले,
स्निग्धवर्णी पात्रे से ज्ञान संपति मिले, उच्चे पात्रे से गच्छ (गण)
और चारित्र में स्थिरता न रहे । छीद्रवाले पात्रे रखने से शरीर पर फोडे आदि आवे।