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३८४) २ मुहपत्ति से ज्यादा मुहपत्ति रखनी साधु को नहीं कल्पें, दोष परिग्रह का लगे ।
३८५) नेईलकटर, पडदा, अस्त्रा आदि सीर्फ आचार्य रखे, अन्य कोई साधु न रखे ।
३८६) सुसाधु को ग्लान (बिमार ) ऐसे पासत्थे साधु की भी सेवा करनी, वो लोकोपवाद से बचने के लिए, खुद के उचित के लिए तथा उसे पुन: सन्मार्ग में स्थापित करने के लिए है ।
३८७) मुझे तो ऐसा ही चाहिए, ये चले, ये न चले, ये जमे-ये न जमे, यह अनुकूल आवे - यह न आवे इस तरह का भाव साधु न रखे | सर्व काल - क्षेत्र - द्रव्य से अप्रतिबंध होकर विचरे । जो मीलेजैसा मीले - जीस प्रकार का मिले वैसा निर्दोष और प्रासुक ग्रहण करे ।
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३८८) दोषवाली, अशुध्द गोचरी वापरने से चोरी का पाप लगे, क्योंकि वह तीर्थंकर अदत्त है ।
३८९) साधु और आचार्य ये दोनो सुने (चार - कान) इस प्रकार आलोचना करनी तथा साध्वीजी को अकेले आलोचना न करनी, अन्य एक साध्वीजी को साथ रखकर आचार्य के पास (छ: कान सुने) इस प्रकार आलोचना करनी ।
३९०) लगे हुए पाप - दोष- अतिचार की आलोचना तो करनी ही है, लेकिन साथ में जो अपने स्वभावगत वृतीयाँ हो गई है ऐसे वीपरीत वृतीओ की तो खास आलोचना करनी है ।
३९१) मैं पाप की आलोचना (प्रायश्चित) लूंगा तो लोग मेरे बारें में क्या सोचेंगे ?