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३५८) ग्लान साधु खुद आहार लाता हो जावे और बाहर स्थंडिल भूमि जाता हो जावे तब तक तो उनकी वैयावच्च करनी ही करनी ।
३५९) ग्लान की सेवा करनी (बिमार साधु) यह तीर्थंकरो की आज्ञा है उस समय बाकी सब कार्य गौण है ।
३६०) गोचरी वहोराकर आने के बाद तुरंत ही वापरने नहीं बैठना, उसमें दोष है, लेकिन गोचरी वहोराने वाला साधु थोडा स्वाध्याय करे फीर गोचरी वापरने बैठे इसमें बहोत लाभ है ।
३६१) साधु को कारणवश गृहस्थ के घर में रात्री मुकाम करना पडे तो, स्त्री रहित मकान में ठहरे ।
३६२) सीर्फ तीर्थयात्रा की एकमात्र दृष्टी से ही होनेवाला विहार शास्त्र मुताबिक "निष्कारण विहार" है । इसका सुविहित सुसाधु यह सदैव ध्यान रखे ।
३६४) चातुर्मास शुरू होने से पहेले साधु महास्थंडिल भूमि भी देखके रखे, क्योंकि चार्तुमास में कोई मुनि काल करे, तो उनके महा परिष्ठान के लिए काम आवे ।
३६५) विहार की शुरुआत अच्छी तिथि, और अच्छे शुकन देखकर करना, अपशुकन का त्याग करना । विहार के शुभ शुकन गाय, वार्जीत्र के आवाज़, पूर्ण भरा हुआ घडा, शंखनाद, छत्र, फुल, जैन साधु, पूर्ण कलश इत्यादि ।
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अपशुकन मलीन शरीरी, फटे हुए कपडेवाला, शरीर पर तेल लगाया हुआ, ठींगनाल पुर्ण गर्भवती स्त्री, कुत्ता, बडी उम्रवाली कन्या, लकडे का भारा, इत्यादी ।
३६६) मात्रा (लघुशंका) रोके तो चक्षु का ते घटे, और डकार (ओडकार) रोके तो कुष्ट रोग आवे ।