Book Title: Agam Ke Panno Me Jain Muni Jivan
Author(s): Gunvallabhsagar
Publisher: Charitraratna Foundation Charitable Trust

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Page 59
________________ ३१०) साधु को दिक्षा-प्रतिष्ठा-पदवी आदि विशिष्ट प्रसंग में ही वासक्षेप करने का अधिकार है । नित्य-निरंतर वासक्षेप देना का विधान/अधिकार नहीं है । ऐसा इस सूत्र की बृहदवृत्ती में कहा गया है। ३११) विनयोपचार से मान का भंजन, गुरुजनो की पूजा, तीर्थंकर की आज्ञा का पालन, श्रुतधर्म की आराधना और अक्रिया (मोक्ष) होती है। ३१२) पासत्था साधु ब्रह्मचर्य से पतित रहेते है, अगर कोई ब्रह्मचारी साधु उन्हे वंदन करे तो, पासत्था साधु को स्वयं यह करना चाहिए की आप भले दिक्षा में छोटे हो, लेकिन मेरे से ज्यादा पूजनीय हो, यानी मुझे वंदन मत करो। ३१३) साधु विहित है या नहीं इसकी परिक्षा, वसती, विहार-स्थान, भाषा और गमन के द्वारा होती है। ३१४) जो साधु अल्प आहार, अल्प बोलना, अल्प निद्रा और अल्प उपधि (उपकरण) वाला हो उसे देवता भी वंदन करते है। ३१५) "कीस रीत से, क्या करूं, तो मुझे रोग न हो" - लगातार इसका विचार करना भी आर्तध्यान है। और यह दुर्गती का कारण है। ३१६) मुनि मोक्ष का भी नियाणा न करे, वह मुक्ति और संसार-दोनों में नि:स्पृह भाव रखे। ३१७) धन का संरक्षण-संवर्धन करने के सतत विचार चलते यह रौद्र ध्यान है, यह खास लक्ष रखना। ३१८) जहाँ ध्यान करनेवालो को मन-वचन-काया के योग की स्वस्थता रहे ऐसा जीव संघट्टादि विराधना रहित क्षेत्र में, गाँव में या निर्जन स्थान में, दिन में या रात्रि को बिना प्रतिबंध ध्यान करना चाहिए।

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